
नई दिल्ली:
सुप्रीम कोर्ट ने फर्जी दस्तावेजों के इस्तेमाल के आरोपों का सामना कर रहीं पूर्व आईएएस प्रोबेशनरी अधिकारी पूजा खेडकर को अग्रिम जमानत प्रदान कर दी है। शीर्ष अदालत ने अपने आदेश में स्पष्ट रूप से कहा है कि पूजा खेडकर को जांच में पूरा सहयोग देना होगा, अन्यथा उनकी अग्रिम जमानत रद्द की जा सकती है।
क्या हैं आरोप?
पूजा खेडकर पर आरोप है कि उन्होंने UPSC सिविल सेवा परीक्षा 2022 में आवेदन करते समय कुछ तथ्यों को गलत तरीके से प्रस्तुत किया, जिसमें दिव्यांगता, ओबीसी आरक्षण और राष्ट्रीय खिलाड़ी होने से संबंधित प्रमाण पत्र शामिल हैं। महाराष्ट्र सरकार ने उनकी नियुक्ति रद्द करते हुए उन्हें प्रोबेशन से मुक्त कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा:
“हमारी प्राथमिक राय में, ये आरोप गंभीर आपराधिक प्रकृति के नहीं हैं। यह एक भर्ती प्रक्रिया से जुड़ा मुद्दा है, जिसकी जांच की आवश्यकता है। अगर आवेदिका जांच में सहयोग नहीं करती हैं, तो उनकी जमानत रद्द की जा सकती है।”
अदालत ने खेडकर को जांच एजेंसियों के सामने उपस्थित होने, साक्ष्य प्रस्तुत करने और पूरी ईमानदारी से सहयोग करने का निर्देश दिया है।
अब तक की कार्यवाही
- खेडकर की नियुक्ति के दौरान विवाद तब बढ़ा जब यह सामने आया कि उन्होंने दिव्यांगता श्रेणी में आवेदन किया, जबकि मेडिकल बोर्ड की जांच में उनकी शारीरिक स्थिति सामान्य पाई गई।
- इसके अलावा उन्होंने राष्ट्रीय खिलाड़ी होने का दावा किया था, जिसे सत्यापित नहीं किया जा सका।
- महाराष्ट्र सरकार ने जुलाई 2024 में उन्हें प्रशिक्षण से हटा दिया, जिसके बाद उनके खिलाफ आपराधिक जांच शुरू हुई।
सरकारी पक्ष का तर्क
सरकारी वकील ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी कि यह मामला आधिकारिक धोखाधड़ी और गंभीर नैतिक अपराध का है, इसलिए उन्हें अग्रिम जमानत नहीं मिलनी चाहिए थी।
पूजा खेडकर का पक्ष
खेडकर की ओर से कहा गया कि उनके खिलाफ लगाए गए आरोप राजनीति से प्रेरित हैं और उन्हें बिना उचित जांच के ही टारगेट किया जा रहा है। उन्होंने कोर्ट से यह भी वादा किया कि वे हर जांच में शामिल होंगी और कानून का पालन करेंगी।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से पूजा खेडकर को अस्थायी राहत तो मिल गई है, लेकिन यदि वे जांच में सहयोग नहीं करती हैं या कोई नई आपराधिक जानकारी सामने आती है, तो उनकी जमानत रद्द की जा सकती है। यह मामला अब न केवल एक नैतिक बहस, बल्कि न्यायिक और प्रशासनिक प्रक्रिया की पारदर्शिता का भी प्रतीक बन चुका है।