
देश में हर साल लाखों लोग सड़क हादसों में मारे जाते हैं, लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन है? केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने अब इसका दोष सीधे-सीधे इंजीनियरों और सलाहकारों की ‘डिफेक्टिव डीपीआर’ (डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट) और सड़क डिजाइन पर मढ़ दिया है। यानी सड़कें गलत तरीके से बनाई जा रही हैं, सड़क पर लगे गाइड बोर्ड और साइन सिस्टम भी नाकाफी हैं, और हमें अब स्पेन, ऑस्ट्रिया, स्विट्जरलैंड से सीखने की जरूरत है। वाह! मतलब, खुद सरकार और नीति-निर्माता तो दूध के धुले हुए हैं, सारा कसूर बस इंजीनियरों और ठेकेदारों का है।
सड़क हादसे: प्लानिंग खराब, लेकिन गाड़ी चलाने वाले जिम्मेदार?
हर साल सरकार नई-नई योजनाओं और सुरक्षित सड़कों के दावों के साथ बजट झोंकती है, लेकिन नतीजा? 2023 में 1 लाख 80 हजार लोग सड़क हादसों में मारे गए। अब इसे क्या कहें—यातायात सुरक्षा की असफलता, या फिर ‘डिफेक्टिव सिस्टम’ की नाकामी? मंत्री जी का कहना है कि हमें स्पेन और स्विट्जरलैंड से सीखना चाहिए। बिल्कुल सीखना चाहिए! लेकिन सवाल ये है कि जब टोल टैक्स स्विट्जरलैंड जैसा लिया जाता है, तो सड़कें कब स्विट्जरलैंड जैसी बनेंगी?
2030 तक 50% सड़क हादसों में कमी – सपना या जुमला?
मंत्री जी ने घोषणा कर दी कि 2030 तक सड़क हादसों में 50% की कमी आएगी। यह सुनकर जनता को हंसी आए या रोना, यह तो वही जाने, लेकिन सवाल यह है कि जब सड़कें अभी भी गड्ढों से भरी हैं, ओवरस्पीडिंग पर कोई लगाम नहीं, ड्राइविंग टेस्ट मज़ाक बन चुका है, और हेलमेट पहनने तक की सख्ती सिर्फ फोटोशूट के लिए होती है, तो ये लक्ष्य कैसे पूरा होगा?
“इंजीनियरों की गलती” या सिस्टम की पोलपट्टी?
गडकरी जी ने कहा कि देश में सबसे खराब क्वालिटी की डीपीआर बनाई जाती है और इसकी वजह से हादसे बढ़ते जा रहे हैं। लेकिन इस डिफेक्टिव डीपीआर को अप्रूव कौन करता है? क्या सड़कें बनाने से पहले उनकी जांच नहीं होती? क्या मंत्रालय के किसी भी अधिकारी की जवाबदेही तय की गई? या फिर यह मान लिया जाए कि सरकार की भूमिका सिर्फ ठेके बांटने और उद्घाटन करने तक सीमित रह गई है?
अंत में सवाल वही – जिम्मेदारी किसकी?
सवाल यह नहीं है कि डिफेक्टिव डीपीआर की वजह से सड़कें खराब बन रही हैं, असली सवाल यह है कि इस डिफेक्टिव सिस्टम को सुधारने की जिम्मेदारी किसकी है? सरकार को सिर्फ इंजीनियरों पर ठीकरा फोड़ने की बजाय खुद की नीतियों और उनके क्रियान्वयन पर भी गौर करना चाहिए। वरना 2030 तो छोड़िए, 2050 तक भी सड़क हादसों में कोई खास कमी नहीं आने वाली—बस प्रेस कॉन्फ्रेंस होती रहेंगी, दावे किए जाते रहेंगे, और देश की सड़कों पर लोगों की जान जाती रहेगी।

VIKAS TRIPATHI
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