ग़ाज़ीपुर – ग्रामीण इलाक़ों में अभी पंचायत चुनाव की अधिसूचना जारी भी नहीं हुई, लेकिन माहौल ऐसा बन चुका है जैसे कल ही मतदान होना हो। जिला पंचायत सदस्य, प्रधान और क्षेत्र पंचायत सदस्य पदों के भावी प्रत्याशी अब खुलकर मैदान में उतर आए हैं — बैनर-पोस्टर से लेकर सोशल मीडिया तक “सेवा का जज़्बा” छलक रहा है। गाँव की हर दीवार पर किसी न किसी का मुस्कुराता चेहरा और नीचे लिखा नारा— “आपका सहयोग ही मेरी ताक़त है”— नजर आ जाएगा।
इन दिनों हाल यह है कि किसी की भी अर्थी उठे तो कंधा देने वालों की लाइन लग जाती है। चुनावी मौसम में “संवेदना” भी वोट बैंक का हिस्सा बन चुकी है। जो पहले कभी अस्पताल का रास्ता नहीं जानते थे, अब मरीजों को खुद स्ट्रेचर पर ले जाते दिख रहे हैं। बैंक में खाता खुलवाने से लेकर थाना में रिपोर्ट दर्ज करवाने तक “भावी प्रत्याशी” खुद हाज़िर हैं। जनता हैरान है कि ये वही लोग हैं जो पांच साल तक फोन तक नहीं उठाते थे, और अब हर कार्यक्रम में फूलमाला लेकर मौजूद हैं।
शाम होते ही गाँव की चौपालों और सार्वजनिक स्थानों पर चुनावी महफ़िलें सजने लगी हैं। वहाँ चर्चा होती है – “का भाई, सीटिया सामान्य रही कि बैकवर्ड? सुने में आवत ह अनुसूचित हो जाई…”। चुनावी समीकरणों के बीच जातीय गणित का हिसाब-किताब हर गली-मोहल्ले में खुलकर हो रहा है।
दूसरी तरफ़, “चुनावी अर्थव्यवस्था” भी तेज़ी पकड़ चुकी है। मुर्गा, बकरा, मछली और देसी-अंग्रेज़ी शराब की बिक्री में रिकॉर्ड उछाल देखा जा रहा है। दुकानदार मुस्कुराते हुए कहते हैं — “चुनाव तो हमारे लिए दिवाली है”।
गाँव में अब हर कोई “नेता” बन चुका है — कोई सड़क दिखा रहा है, कोई शौचालय गिनवा रहा है, और कोई “सेवा कार्य” की पुरानी तस्वीरें व्हाट्सएप पर भेज रहा है। लोकतंत्र का यह उत्सव दरअसल एक ऐसा मेला बन चुका है, जहाँ न कोई टिकट बंटा है, न तारीख़ तय हुई है — लेकिन ताल ठोंकने की होड़ में सब कूद पड़े हैं।
ग़ाज़ीपुर में पंचायत चुनाव भले अभी दूर हो, मगर “जनसेवा” का तापमान 45 डिग्री से ऊपर पहुँच चुका है। जनता अब बस यही सोच रही है — “काश ये चुनावी मौसम थोड़ा और लंबा चलता, तो गाँव की हालत सच में सुधर जाती!”














