
राज्यसभा में गुरुवार को केंद्र सरकार ने वक्फ संशोधन विधेयक पेश किया, जिसे लेकर कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खरगे ने तीखी आपत्ति जताई। उन्होंने सरकार पर सीधा आरोप लगाते हुए कहा कि यह बिल मुस्लिम समुदाय को परेशान करने और उनके अधिकारों को कमजोर करने के लिए लाया गया है। लेकिन सरकार ने इसे ‘सुधारवादी कदम’ बताते हुए दावा किया कि इससे वक्फ संपत्तियों का प्रबंधन और पारदर्शी होगा। अब सवाल यह उठता है कि यह सुधार है या सरकार का कोई नया ‘मैजिक शो’, जिसमें वक्फ संपत्तियां धीरे-धीरे ‘गायब’ होने वाली हैं?
बिल के बहाने ‘बहुमत’ की ताकत दिखी
लोकसभा में यह बिल पहले ही पास हो चुका था, जहां इसके पक्ष में 288 और विरोध में 232 वोट पड़े। यानी, बहुमत के बल पर सरकार ने इसे पारित करा लिया। लेकिन क्या विधेयक को पास करवाना ही सफलता की गारंटी है, या फिर इसका असर देखना भी जरूरी होगा? खरगे ने सरकार पर तंज कसते हुए कहा कि “ऐसा नहीं होना चाहिए कि जो हम कर रहे हैं वही सही है।” लेकिन सरकार शायद यह मानकर चल रही है कि उसके फैसले का विरोध करने का अधिकार सिर्फ उन्हीं को है, जिनके पास 288 से ज्यादा वोट हों!
वक्फ बोर्ड में नॉन-मुस्लिम सदस्य: ‘समावेशी’ नीति या नया प्रयोग?
खरगे की आपत्तियों में सबसे बड़ा सवाल वक्फ बोर्ड में नॉन-मुस्लिम सदस्यों को शामिल करने का था। उन्होंने सीधा सवाल उठाया कि जब तिरुपति बालाजी मंदिर ट्रस्ट में कोई मुस्लिम सदस्य नहीं रखा जाता, तो फिर वक्फ बोर्ड में गैर-मुस्लिम सदस्य क्यों? यह ‘समावेशी नीति’ है या फिर ‘दूसरों के घर में घुसकर रसोई संभालने’ की कोई नई परंपरा शुरू की जा रही है?
उन्होंने व्यंग्य करते हुए कहा कि जब मंदिरों के मामलों में सरकार कोई ‘सुधार’ नहीं करना चाहती, तो फिर वक्फ बोर्ड में इतनी दिलचस्पी क्यों? क्या यह ‘अल्पसंख्यकों को मजबूत करने’ के नाम पर उनकी संपत्तियों पर नियंत्रण पाने की कोई चाल है?
विधेयक में ‘सुधार’ की बात या ‘समाप्ति’ की योजना?
खरगे ने इस बिल को सरकार की अल्पसंख्यक विरोधी नीति का हिस्सा बताया और आरोप लगाया कि सरकार वक्फ बोर्ड की संपत्तियों को धीरे-धीरे ‘संपत्ति प्रबंधन’ के नाम पर कब्जे में लेना चाहती है। उन्होंने कहा कि जब सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को बेचने पर आमादा है, तो वक्फ संपत्तियां भी शायद अब ‘विकास’ के नाम पर नीलामी के लिए तैयार हो रही हैं।
उन्होंने कटाक्ष करते हुए कहा—
“वो हाथ जोड़कर बस्ती को लूटने वाले,
भरी सभा में सुधारों की बात करते हैं…”
यानि जो लोग ‘सुधारों’ की बात कर रहे हैं, असल में उनका ध्यान कहीं और है। जब सरकार सरकारी कंपनियों को बेचकर ‘आत्मनिर्भर भारत’ बना सकती है, तो क्या वक्फ संपत्तियों के जरिए ‘विकास’ करने की योजना तैयार हो रही है?
अल्पसंख्यकों के अधिकारों की कटौती?
खरगे ने बिल की उन धाराओं पर भी सवाल उठाए, जिनमें कलेक्टर को वक्फ संपत्तियों के फैसले करने का अधिकार दिया गया है। उन्होंने कहा कि जब फैसला कलेक्टर को करना है, तो क्या कोई उम्मीद कर सकता है कि वह निष्पक्ष रहेगा? क्या सरकार ने यह मान लिया है कि देश के सभी कलेक्टर निष्पक्ष देवदूत हैं, जो अपने व्यक्तिगत या राजनीतिक हितों से ऊपर उठकर फैसले करेंगे?
खरगे ने कहा कि जब सरकारी बजट में अल्पसंख्यकों के लिए आवंटन लगातार घटता जा रहा है, जब स्कॉलरशिप बंद की जा रही हैं, जब मदरसों पर ताले लगाए जा रहे हैं, तब सरकार यह दावा कैसे कर सकती है कि वह अल्पसंख्यकों के ‘कल्याण’ की सोच रखती है?
सरकार का इरादा साफ नहीं?
कांग्रेस अध्यक्ष ने सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा कि—
“बड़ा हसीन है उनकी जुबान की जादू,
लगा के आग बारों की बात करते हैं…”
यानि, सरकार सुधारों की बात तो कर रही है, लेकिन यह सुधार किसके लिए हैं? क्या यह विधेयक अल्पसंख्यकों के अधिकारों को मजबूत करेगा, या फिर उनके लिए एक नया सिरदर्द खड़ा करेगा?
‘सुधार’ के नाम पर नया विवाद
सरकार का कहना है कि यह बिल वक्फ संपत्तियों को पारदर्शी और सुरक्षित बनाएगा, लेकिन विपक्ष का आरोप है कि यह बिल अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर हमला है। खरगे ने सरकार से अपील की कि इस विधेयक को वापस लिया जाए और अगर पहले के कानून में कमियां हैं तो उन्हें सुधारने का प्रयास किया जाए, न कि नया विवाद खड़ा किया जाए।
अब देखना यह होगा कि सरकार इस बिल को लेकर अपने ‘सुधारवादी’ इरादों पर कायम रहती है या फिर विपक्ष और अल्पसंख्यक संगठनों के विरोध को देखते हुए इसमें कुछ बदलाव करने का नाटक करती है। फिलहाल, बहस जारी है—सरकार इसे सुधार कह रही है और विपक्ष इसे अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर ‘संशोधन’। जमीं पर इसका क्या असर होगा, यह आने वाला वक्त ही बताएगा!