
सुबह की पहली खबर आई—“देश में दाल का संकट गहराने वाला है!” बस, फिर क्या था! कुछ ने माथे पर चिंता की लकीरें खींचीं, तो कुछ ने मुस्कुराते हुए नमकदान संभाल लिया। आखिर, जब दाल नहीं मिलेगी, तो नमक ही सगा होगा। वैसे भी, सरकारी नमक और सरकारी वादों का स्वाद चखने का सौभाग्य हर किसी को बार-बार नहीं मिलता।
अब सवाल उठता है कि दाल गई कहां? सरकारी गोदामों में ताले पड़ गए या बोरियों में चूहे घुस गए? आंकड़ों ने बताया कि सरकार के पास दाल का स्टॉक 35 लाख टन होना चाहिए, लेकिन असल में बचा है सिर्फ 14.5 लाख टन— यानी जरूरत का महज़ 40%। मतलब यह कि अब हर थाली में दाल नहीं होगी, बल्कि दाल का सिर्फ “अवशेष” होगा। अब हमारी जनता को यह तय करना होगा कि दाल में पानी डालें या पानी में दाल घोलें!
नमक से देशभक्ति तक का सफर
चिंता मत करिए! हमारी सरकारें संकटों को देशभक्ति के महोत्सव में बदलने की कला में माहिर हैं। दाल नहीं है? कोई बात नहीं, नमक परोसिए! आखिर, नमक का कर्ज चुकाना भी तो जरूरी है। हमारे वोटर नमक खाते हैं और फिर अगले चुनाव में उसी के प्रभाव में वोट देते हैं। इसे ही “नमकहलाली” कहा जाता है!
अब आप सोच रहे होंगे कि किसान दाल बेच क्यों नहीं रहा? तो सुनिए—सरकार ने अरहर दाल का MSP (न्यूनतम समर्थन मूल्य) 7500 रुपये तय किया, लेकिन बाजार में उसे 10,000 रुपये मिल रहे हैं। किसान समझदार हो गया है, वह अब सरकार के बजाय उन्हीं को दाल बेच रहा है जो उसे ज्यादा पैसा दे रहे हैं— यानी कॉरपोरेट्स! और जब पूंजीपति दाल खरीदेंगे, तो उसका भंडारण भी करेंगे। फिर एक दिन ऐसा आएगा जब बाजार में दाल की किल्लत दिखेगी, कीमतें आसमान छुएंगी, और मुनाफे की “हलवा पूड़ी” सजेगी। गरीब जनता तब तक सिर्फ “दाल का साया” ही देखती रहेगी।
दाल का कृत्रिम संकट: अमीरों की थाली बनाम गरीबों की हांडी
अब देखिए, जिस देश में रोजाना 300 लाख टन दाल खाई जाती है, वहां अमीरों की थाली में दाल बढ़ रही है और गरीबों की थाली में पानी! आज देश में करीब 85,000 से 86,000 लोग ऐसे हैं जिनकी थाली में सिर्फ दाल ही नहीं, बल्कि डॉलर भी तैरते हैं। और हां, अगले साल यह संख्या 93,000 से 94,000 हो जाएगी। अमीरों के पास “थ्री कोर्स मील” होगा और गरीबों के पास “फ्री कोर्स मिस” (खाने का अभाव)! ये है नया भारत!
सरकार का मास्टरस्ट्रोक: “आयात का जुगाड़”
अब आप सोच रहे होंगे कि सरकार कुछ करेगी? बिल्कुल करेगी! सरकार ने कहा है कि वह कुछ लाख टन दाल आयात करेगी। लेकिन गरीब के लिए यह आयात किसी मृगतृष्णा से कम नहीं। वह बाजार में दाल के बोरों को दूर से देखेगा, फिर “दाल का पानी” देखेगा, फिर… “नमक” देखकर चुपचाप रोटी खा लेगा।
देशभक्ति का नया मापदंड: दाल छोड़ो, बलिदान दो!
हमारे देश में देशभक्ति की परिभाषा बहुत लचीली होती है। अगर गरीब दाल नहीं खा पा रहा, तो इसका मतलब है कि वह देशभक्ति की परीक्षा पास कर रहा है। इस त्याग से हमारा वैश्विक भुखमरी सूचकांक और बेहतर होगा। दुनिया देखेगी कि हम भूख से भी देशभक्त पैदा कर सकते हैं।
लेकिन अगर आपको यह तर्क समझ नहीं आ रहा, तो चिंता मत करिए! ED, CBI, IT विभाग इसे अच्छे से समझा देंगे। कहीं जेल में आपको खाने के लिए सिर्फ दाल का पानी मिले, तो फिर मत कहना—“बच्चू, ये क्या हुआ?”
अंत में एक संदेश
इसलिए, हे भारतवासियों, दाल की चिंता छोड़िए, नमक के स्वाद को महसूस कीजिए, और अगली बार वोट डालते समय याद रखिए कि आपके हिस्से में दाल आई थी या सिर्फ पानी! और हां, यह मत भूलिए कि देशभक्ति का असली मतलब सिर्फ सत्ता के आदेशों का पालन करना है, न कि अपने पेट की भूख बुझाना!

VIKAS TRIPATHI
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