
हर साल 5 जून को जब दुनियाभर में विश्व पर्यावरण दिवस बड़े जोश से मनाया जाता है, तब हर गली-मोहल्ले, कॉलोनी और कस्बे में लगे पीपल, नीम और बरगद के पेड़ों के नीचे खड़ी एक सच्चाई सिर झुकाए खड़ी मिलती है — जहां न तो हरियाली की बात होती है, न ही श्रद्धा की कोई गरिमा शेष रहती है। वहाँ केवल कचरे के ढेर पर बैठा भगवान दिखता है।
यह विडंबना सिर्फ किसी एक शहर की नहीं, यह समूचे समाज का आइना है।
मूर्ति विसर्जन या “ईश-उपभोग” का अंत?
हम हिंदू अपने देवी-देवताओं को सालों तक पूजा-पाठ में बिठाते हैं।
कोई भगवान गणेश को घर लाता है सफलता के लिए,
कोई माँ दुर्गा को बुलाता है संकट हटाने को,
कोई शंकरजी को जल चढ़ाता है संतान पाने के लिए।
लेकिन जब मनोकामना पूरी नहीं होती — या जब नई मूर्ति का आगमन हो जाता है — तो वही भगवान, जो कभी घर की शोभा थे, अब कूड़े की पात्रता में आ जाते हैं।

उन्हें सड़क किनारे किसी भी पेड़ के नीचे पटक दिया जाता है।
कभी उनकी मूर्तियाँ टूटी हुई मिलती हैं, कभी उनका सिर ही ग़ायब होता है।
चारों ओर बासी फूल, प्लास्टिक की थैलियाँ, अगरबत्तियों के खाली डब्बे और पूजा के गंदे बर्तन — ये सब भगवान की “सेवानिवृत्ति” का सामान होता है।
ये कैसी श्रद्धा, जो अपमान में बदल जाती है?
सनातन धर्म हमें सिखाता है —
“ईश्वर केवल मंदिर में नहीं, कण-कण में बसते हैं।”
“वृक्षों में देवता का वास होता है।”
तो फिर उन्हीं वृक्षों के नीचे हम अपनी पूजा की विफलताओं और झूठी श्रद्धा का कचरा क्यों फेंकते हैं?
क्या कभी किसी चर्च के बाहर जीसस की टूटी मूर्ति देखी है?
क्या किसी मस्जिद के बाहर अल्लाह लिखा बोर्ड फेंका देखा है?
नहीं।
क्योंकि वहां धर्म केवल आस्था नहीं, ज़िम्मेदारी भी है।
और हमारे यहाँ?
हम धर्म को सुविधा का साधन बना चुके हैं — जब तक चाहिए, पूजो; फिर किसी गली या पेड़ के नीचे “डाल आओ”।
श्रद्धा की सफाई कौन करेगा?
शायद ही किसी कॉलोनी, मंदिर, स्कूल या गली में ऐसा पेड़ हो जिसके नीचे कोई टूटी मूर्ति या पूजा सामग्री न मिले।
क्या यह हम सबकी सामूहिक असंवेदनशीलता नहीं?
आज जब दुनिया प्लास्टिक मुक्त समाज की ओर बढ़ रही है, हम “मूर्ति मुक्त पेड़” भी नहीं बना पा रहे।
श्रद्धा के नाम पर पाखंड, पर्यावरण के नाम पर प्रदूषण
हम न तो श्रद्धा का सम्मान कर पा रहे हैं, न प्रकृति का।
पेड़ लगाते हैं, फोटो खिंचवाते हैं, पोस्टर छपवाते हैं।
फिर उन्हीं पेड़ों को धार्मिक कचरे का डंपिंग ग्राउंड बना देते हैं।
हम भगवान को चांदी के मुकुट पहनाते हैं
और फिर एक दिन सड़क किनारे
कचरे की तरह छोड़ आते हैं।
व्यंग्य में एक सवाल
“क्या हम भगवान को पूजते हैं, या उनका उपयोग करते हैं?”
समाज के लिए सुझाव:
1. मूर्तियों का उचित विसर्जन/विस्थापन हो — नगरपालिका द्वारा निर्धारित स्थानों पर।
2. शिक्षा दी जाए कि पूजा के बाद सामग्री का सम्मानजनक निपटान कैसे करें।
3. धार्मिक स्थलों और कॉलोनियों में सूचना बोर्ड लगें:
“पेड़ के नीचे कचरा डालना अपराध है — आस्था का अपमान है।”
4. पर्यावरण और धर्म दोनों के प्रति नैतिक ज़िम्मेदारी अपनाएं।
“श्रद्धा = आस्था + ज़िम्मेदारी”
जो आस्था को केवल रिवाज़ बना दे और ज़िम्मेदारी से भाग जाए —
वो भक्त नहीं, केवल उपभोक्ता है।