
महाराष्ट्र के हालिया विधानसभा चुनावों में हार का सामना करने के बाद उद्धव ठाकरे की पार्टी शिवसेना (यूबीटी) की निगाह अब बृहन्मुंबई नगर निगम (BMC) चुनावों पर टिक गई है। बीएमसी शिवसेना का परंपरागत गढ़ माना जाता है। यहां हार का मतलब न केवल सत्ता का नुकसान बल्कि असली शिवसेना की लड़ाई में ठाकरे गुट का कमजोर पड़ना होगा। यही कारण है कि शिवसेना (यूबीटी) अब नए सिरे से चुनावी रणनीति तैयार कर रही है।
हालांकि, सियासी गलियारों में इस बात की चर्चा तेज है कि उद्धव ठाकरे इस बार बीएमसी चुनाव में अकेले उतर सकते हैं। महाविकास अघाड़ी (MVA) गठबंधन के भीतर असहमति और बदलते राजनीतिक समीकरणों ने इस चर्चा को और बल दिया है।
1. कांग्रेस से मोहभंग के संकेत
MVA में शिवसेना (यूबीटी) और कांग्रेस के बीच हाल के दिनों में कई असहमति उभरकर सामने आई हैं। महाराष्ट्र चुनाव में हार के बाद उद्धव ठाकरे के करीबी और विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष अंबादास दानवे ने कांग्रेस पर तीखा हमला किया। उन्होंने कांग्रेस को अति आत्मविश्वास का शिकार बताते हुए कहा कि इसी वजह से गठबंधन को हार झेलनी पड़ी।
दानवे ने तो यहां तक कहा कि चुनाव से पहले ही कांग्रेस के नेता मंत्री बनने की तैयारी में सूट-बूट सिलवा रहे थे। इसके अलावा, झारखंड में नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में भी उद्धव ठाकरे की अनुपस्थिति ने राजनीतिक गलियारों में चर्चा को और तेज कर दिया। इस समारोह में ममता बनर्जी, अखिलेश यादव और राहुल गांधी जैसे कई विपक्षी नेता शामिल हुए, लेकिन उद्धव ने न केवल खुद को दूर रखा बल्कि अपनी पार्टी की ओर से किसी को भी भेजने की जरूरत महसूस नहीं की।
2. हिंदुत्व पर शिवसेना (यूबीटी) का जोर
बीएमसी चुनाव को ध्यान में रखते हुए उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने हिंदुत्व की तरफ अपने रुख को और मजबूत कर लिया है। हाल ही में उद्धव के करीबी और विधान परिषद सदस्य मिलिंद नार्वेकर ने बाबरी मस्जिद विध्वंस की बरसी पर एक पोस्ट साझा किया। इस पोस्ट पर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी (सपा) के नेताओं ने तीखी प्रतिक्रिया दी।
सपा विधायक रईस शेख और अबू आजमी ने इस मुद्दे पर शिवसेना की आलोचना की, वहीं आजमी ने तो महाराष्ट्र में इंडिया गठबंधन से सपा के बाहर होने तक की घोषणा कर दी। दूसरी ओर, शिवसेना (यूबीटी) हिंदुत्व के मुद्दे को अपने एजेंडे में सबसे आगे रखना चाहती है।
3. चुनाव पूर्व कांग्रेस-शिवसेना में खटपट
विधानसभा चुनाव से पहले भी कांग्रेस और शिवसेना (यूबीटी) के बीच सीट बंटवारे को लेकर खींचतान चलती रही। दोनों दलों ने आखिरकार कई सीटों पर एकसाथ उम्मीदवार उतारने का फैसला किया, लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान भी दोनों दलों में विवाद की खबरें आती रहीं।
सोलापुर दक्षिण सीट पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार शिंदे ने मतदान के दिन उद्धव के उम्मीदवार के बजाय एक निर्दलीय प्रत्याशी का समर्थन कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि उद्धव का उम्मीदवार चुनाव में काफी पीछे रह गया।
शिवसेना का गढ़ और बीएमसी का महत्व
बीएमसी शिवसेना का गढ़ रही है। 1995 में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन ने महाराष्ट्र में सरकार बनाई थी। इसके बाद 1996 में बीएमसी के चुनाव हुए, जिसमें शिवसेना ने बड़ी जीत हासिल की। तब से अब तक बीएमसी के 12 मेयर सभी शिवसेना के ही रहे हैं।
बीएमसी की सत्ता में पकड़ बनाए रखना उद्धव ठाकरे के लिए राजनीतिक अस्तित्व का सवाल है। वहीं, एकनाथ शिंदे की अगुवाई वाली शिवसेना भी बीएमसी पर कब्जा जमाने की तैयारी में है। अगर शिंदे गुट बीएमसी पर कब्जा कर लेता है, तो उद्धव ठाकरे के लिए अपनी पार्टी और संगठन को बचाना बेहद मुश्किल हो जाएगा।
क्या उद्धव का “एकला चलो” होगा सफल?
उद्धव ठाकरे का कांग्रेस और सपा से दूरी बनाना और हिंदुत्व की तरफ झुकाव इस बात का संकेत है कि उनकी पार्टी अकेले चुनाव लड़ने की ओर बढ़ रही है। हालांकि, शिवसेना (यूबीटी) के लिए बीएमसी चुनाव किसी बड़ी परीक्षा से कम नहीं होंगे।
यह देखना दिलचस्प होगा कि उद्धव ठाकरे की रणनीति बीएमसी चुनावों में उन्हें कितनी सफलता दिला पाती है और क्या वह शिवसेना का पारंपरिक गढ़ बचा पाएंगे या नहीं।