परिवार—मानव सभ्यता की सबसे पुरानी संस्था। प्रेम और सहारे का सबसे बड़ा आधार। लेकिन इसी परिवार में जब सत्ता, विरासत, महत्त्वाकांक्षा और अहं का तड़का मिल जाता है, तो वही परिवार सियासत की सबसे बड़ी कमजोरी बन जाता है।कहावत है—
“जहाँ चार बर्तन होते हैं, वहाँ आवाज़ तो होगी ही।”
परंतु राजनीति में परिवारवाद की ये “आवाज़ें” सिर्फ किचन की खनखनाहट नहीं होतीं। ये आवाज़ें कभी राज्य की राजनीति को हिलाती हैं, कभी एक पार्टी को मिटाती हैं, तो कभी एक लम्बी विरासत को धूल में मिला देती हैं।
महाभारत में कौरव-पांडव का संघर्ष हो या मुग़ल परिवार का रक्तरंजित सिंहासन युद्ध, या आधुनिक भारत के राजनीतिक घरानों की कलह—सत्ता जब परिवार पर केंद्रित हो जाती है, तो परिवार ही उसकी कब्र बन जाता है।
आज भारतीय राजनीति उसी पुरानी कहानी का नया संस्करण बन चुकी है, और इसका ताज़ा अध्याय है—
लालू यादव परिवार की विस्फोटक कलह।
लालू परिवार: एक राजनीतिक साम्राज्य का अंदरूनी टूटन
सात बेटियों और दो बेटों के पिता लालू प्रसाद यादव, जो कभी बिहार की राजनीति के विजयी नायक थे, आज उसी राजनीति के बीच असहाय पिता की स्थिति में नजर आते हैं। विरासत छोटे बेटे तेजस्वी यादव को सौंप दी, लेकिन बड़ा बेटा तेज प्रताप यादव विस्फोट बनकर फूट पड़ा। बहन रोहिणी आचार्य भी बड़े भाई के साथ खड़ी हो गईं।
दोनों का आरोप है कि तेजस्वी ने घर में “शकुनियों” को जगह दे रखी है—सलाहकार, जो न सिर्फ तेजस्वी की राजनीति बल्कि परिवार के भीतर की आवाजाही को भी नियंत्रित कर रहे हैं।
तेज प्रताप और रोहिणी का कहना है—
“हमें अपने ही माता-पिता से मिलने के लिए तेजस्वी के इन सलाहकारों से अनुमति लेनी पड़ती है।”यह आरोप सिर्फ परिवार की दरार नहीं, बल्कि एक राजनीतिक साम्राज्य की चरमराती दीवारों की गूँज है। एक समय बिहार की राजनीति पर 15 साल तक एकछत्र राज करने वाले लालू-राबड़ी आज चुप हैं— क्योंकि जिस ओर देखें, वही बर्तन आपस में टकराते नजर आते हैं।
विरासत की यह आग सिर्फ लालू परिवार में नहीं—देश भर में धधक रही है
1.मुलायम परिवार – अखिलेश ने संभाला पर दरारें आज भी मौजूद
उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के परिवार की खाइयाँ किसी से छिपी नहीं। अखिलेश बनाम शिवपाल—यह संघर्ष एक समय पार्टी को दो हिस्सों में बाँट देते-देते रह गया। हालाँकि अखिलेश के संयम और प्रशासनिक समझ ने स्थिति को नियंत्रित किया, लेकिन परिवार आज भी एकजुट नहीं है।
अखिलेश के पास जनाधार है, विकास की छवि है—परंतु यादव परिवार की अंदरूनी राजनीति अब भी तलवार की धार पर चलती है। यह भी सच है कि यूपी में यादव समुदाय अधिकांशतः पढ़ा-लिखा, संगठित और कृषि समृद्ध है—इसलिए यहाँ परिवारवाद का अराजक रूप अपेक्षाकृत कमजोर पड़ जाता है।
2.बादल परिवार – पंजाब की राजनीति एक परिवार की जायदाद बन गई थी
शिरोमणि अकाली दल (SAD) पर बादल परिवार का 40 साल का कब्ज़ा पंजाब में लोकतांत्रिक सोच को चोट पहुँचाता रहा। लेकिन परिवार की आपसी खींचतान, आरोप-प्रत्यारोप, और सत्ता में अति-आत्मविश्वास ने पार्टी को जमीन पर ला पटका। आज बादल परिवार का राजनीतिक प्रभाव खत्म होता जा रहा है— क्योंकि पार्टी “जनता की” नहीं, “परिवार की” बनकर रह गई थी।
3.करुणानिधि परिवार – जहाँ करुणा नहीं, कलह ही कलह
तमिलनाडु के राजनीतिक दिग्गज करुणानिधि के बेटों अलागिरी बनाम स्टालिन की लड़ाई ने 2013-14 में ऐसा तमाशा खड़ा किया कि पार्टी टूटने की कगार पर पहुँच गई। तोड़-फोड़, सड़क पर संघर्ष, और अंततः अलागिरी की निष्कासन—यह सब दर्शाता है कि जब सत्ता परिवार की थाली में परोसी जाती है, तो हर बेटा खुद को उसका हक़दार समझता है। करुणानिधि ने अंततः एमके स्टालिन को उत्तराधिकारी बनाया, अलागिरी ने नई पार्टी बनाई—लेकिन यह पार्टी इतिहास तक सीमित होकर रह गई।
4.ठाकरे परिवार – महाराष्ट्र की राजनीति का दर्द
बाल ठाकरे की विरासत को लेकर उद्धव बनाम एकनाथ शिंदे का संघर्ष सिर्फ राजनीतिक विद्रोह नहीं था—यह एक परिवार की दीवारों के भीतर लंबे समय से पनप रहे अंतरविरोधों का विस्फोट था। आज शिवसेना दो हिस्सों में बँट चुकी है, और ठाकरे परिवार अपनी विरासत को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है।
5.चौटाला परिवार – जहाँ विरासत की लड़ाई ने राजनीति को डुबो दिया
हरियाणा में चौटाला परिवार ने जनता दल को निजी संपत्ति बना लिया था। मगर तीसरी पीढ़ी आते-आते सत्ता की जमीन ही खिसक गई। लड़ाई इतनी बढ़ी कि परिवार आज राजनीतिक नक्शे से लगभग गायब है।
क्यों टूटते हैं राजनीतिक परिवार?
1.विरासत का बोझ
जब नेता पार्टी को परिवार केंद्रित बना देता है, तो बच्चों में यह भावना जन्म लेती है कि “सत्ता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।” इसके बाद संघर्ष होना तय है।
2.सलाहकारों का दखल
हर परिवार में कुछ सलाहकार (जिन्हें परिवार “शकुनी” कह देता है) प्रमुख सदस्यों को दूसरे से दूर कर देते हैं। इनकी वजह से अविश्वास बढ़ता है और राजनीति “घर की राजनीति” बन जाती है।
3.कार्यकर्ता उपेक्षित, परिवार केंद्र में
जब नेता परिवारवाद को चरम पर ले जाता है, तो पार्टी की जड़ें कमजोर हो जाती हैं। जिस दिन परिवार कमजोर हुआ—पार्टी ढह जाती है।
बिहार का दर्द: परिवारवाद ने राज्य का भविष्य ही निगल लिया
1990 से 2005 तक लालू-राबड़ी शासन में जब परिवार ने सत्ता को अपने घर तक सीमित कर लिया—
बिहार में अराजकता पनपी, जातीय सेनाएँ सक्रिय हुईं, उद्योग बंद हुए, और पढ़ा-लिखा वर्ग राज्य छोड़ गया।
यह इतिहास आज भी बिहार की आँखों में धुआँ बनकर घूमता है।
परिवारवाद ने राजनीति को जनता से काट दिया—और यही उसकी सबसे बड़ी विफलता रही।
बरगद बनाम कमजोर तना — राजनीति का प्राकृतिक सिद्धांत
बरगद का पेड़ इसलिए सदियों तक जीवित रहता है क्योंकि उसकी प्रत्येक शाखा खुद को जमीन से जोड़ लेती है और नई जड़ बन जाती है। परंतु राजनीतिक परिवारों में शाखाएँ (बेटे-बेटियाँ) जड़ों से नहीं जुड़तीं—
बस सत्ता की ऊँचाई पर बैठ जाती हैं। जड़ से कटे पेड़ का अंत निश्चित है—भले वह कभी कितना ही विशाल क्यों न रहा हो।
अंततः…
जहाँ चार बर्तन हों, वहाँ आवाज़ तो होगी ही—
लेकिन राजनीति में यह आवाज़ सिर्फ खनक नहीं, पतन का संकेत होती है**
“लालू परिवार हो, करुणानिधि हों, बादल हों, मुलायम हों या ठाकरे—
हर कहानी यही कहती है कि जब राजनीति परिवार पर टिकी होती है,
तो अंततः परिवार ही राजनीति को निगल लेता है।”
क्योंकि—
परिवार राजनीति को संभाल सकता है,
लेकिन राजनीति परिवार को संभाल नहीं पाती।














