
मराठा इतिहास वीरता, युद्ध-कौशल और रणनीतिक सूझबूझ का प्रतीक है। जब भी इस गौरवशाली इतिहास की बात होती है, तो छत्रपति शिवाजी महाराज और उनके वीर सेनानायकों की गाथाएँ सबसे पहले सामने आती हैं। इन्हीं पर आधारित फिल्म “छावा” मराठा स्वाभिमान की अमर कहानी को चित्रित करती है। लेकिन इस इतिहास के नायक केवल पुरुष ही नहीं थे, बल्कि कई वीरांगनाएँ भी थीं, जिन्होंने अपने शौर्य, बुद्धिमत्ता और संघर्ष से मराठा साम्राज्य को सशक्त बनाया। ऐसी ही एक प्रेरणादायक नायिका थीं बैजा बाई सिंधिया, जिनका जीवन यह प्रमाणित करता है कि महिलाएँ भी किसी छावा से कम नहीं होतीं।

शौर्य और बलिदान की गाथा: बैजा बाई सिंधिया का प्रारंभिक जीवन
1784 में महाराष्ट्र के कागल, कोल्हापुर में जन्मी बैजा बाई सिंधिया का बचपन एक कुलीन मराठा परिवार में बीता। उनके पिता सखाराम घाटगे कागल के देशमुख थे और कोल्हापुर के भोंसले शासकों के अधीन कार्यरत थे। माता सुंदराबाई भी मराठा कुल से थीं।
मराठाओं की परंपरा के अनुसार, बैजा बाई को घुड़सवारी, तलवारबाजी और युद्धकला की शिक्षा दी गई। उन्होंने न केवल अस्त्र-शस्त्र चलाना सीखा, बल्कि युद्धनीति और कूटनीति में भी महारत हासिल की।
1798 में मात्र 14 वर्ष की आयु में, बैजा बाई का विवाह ग्वालियर के महाराज दौलत राव सिंधिया से हुआ और वे ग्वालियर राज्य की महारानी बनीं। लेकिन उनका जीवन केवल महलों तक सीमित नहीं रहा, वे स्वयं रणभूमि में उतरकर मराठा शौर्य की मिसाल बनीं।

अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष: असाय का युद्ध (1803)
जब अंग्रेजों ने मराठा सत्ता को कमजोर करने के लिए अपनी नीतियों को तेज किया, तब 1803 में दूसरी आंग्ल-मराठा लड़ाई छिड़ गई। बैजा बाई अपने पति दौलत राव सिंधिया के साथ युद्ध में गईं और असाय के ऐतिहासिक युद्ध में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ वीरता से लोहा लिया।
इस युद्ध में ब्रिटिश सेना का नेतृत्व आर्थर वेलेस्ली कर रहा था, जो आगे चलकर इंग्लैंड का ड्यूक ऑफ वेलिंगटन बना। युद्ध में सिंधिया सेना हार गई, लेकिन बैजा बाई की बहादुरी अंग्रेजों के लिए भी प्रेरणास्रोत बन गई। उन्होंने न केवल रणभूमि में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, बल्कि अपने सैनिकों का हौसला भी बढ़ाया।
राजनीतिक कुशलता और प्रशासनिक नेतृत्व
युद्धों के दौरान और उसके बाद भी, बैजा बाई ने ग्वालियर राज्य के प्रशासन में सक्रिय भूमिका निभाई। दौलत राव सिंधिया ने उन्हें राज्य के प्रशासनिक मामलों में पूरी स्वतंत्रता दी थी। वे एक कुशल प्रशासक थीं, जिन्होंने ग्वालियर की नीतियों को प्रभावी रूप से संचालित किया।
उन्होंने कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए, जिनमें उदयपुर के विलय का विरोध प्रमुख था। उनका मानना था कि राजपूत राज्यों को मराठा शासन के अंतर्गत नहीं लाना चाहिए, क्योंकि इससे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक असंतुलन पैदा होगा। यह उनकी कूटनीतिक दृष्टि को दर्शाता है।
बैजा बाई द्वारा निर्मित प्रसिद्ध मंदिर

बैजा बाई सिंधिया केवल एक योद्धा और राजनेता ही नहीं थीं, बल्कि उन्होंने धर्म और संस्कृति को भी बढ़ावा दिया। उन्होंने कई मंदिरों का निर्माण करवाया, जिनमें से कुछ आज भी प्रसिद्ध हैं:
1. श्री हरसिद्धि माता मंदिर (उज्जैन) – उज्जैन में स्थित यह मंदिर शक्ति उपासना का प्रमुख केंद्र है। बैजा बाई ने इसका जीर्णोद्धार करवाया और मंदिर को भव्य स्वरूप दिया।
2. श्री काल भैरव मंदिर (उज्जैन) – इस मंदिर को पुनर्निर्मित कराने का श्रेय भी बैजा बाई को जाता है। यह मंदिर काल भैरव की उपासना के लिए प्रसिद्ध है।
3. महाकालेश्वर मंदिर परिसर (उज्जैन) – उज्जैन के सुप्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर के पुनर्निर्माण और सौंदर्यीकरण में भी बैजा बाई की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
4. गोपेश्वर महादेव मंदिर (ग्वालियर) – भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर ग्वालियर में स्थित है और इसे बैजा बाई के संरक्षण में पुनः भव्य रूप दिया गया।
5. मुक्तेश्वर महादेव मंदिर (ग्वालियर) – इस मंदिर का निर्माण भी बैजा बाई द्वारा कराया गया था, जो आज भी ग्वालियर की ऐतिहासिक धरोहरों में से एक है।
इन धार्मिक स्थलों के निर्माण और संरक्षण से यह स्पष्ट होता है कि बैजा बाई केवल एक कुशल योद्धा और प्रशासक ही नहीं, बल्कि एक धर्मपरायण और संस्कृति संरक्षक भी थीं।

1857 का संग्राम और बैजा बाई की भूमिका
1857 के विद्रोह के दौरान, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहेब और तात्या टोपे जैसे योद्धाओं ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध किया। जब तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया, तो सिंधिया राजा जयाजी राव सिंधिया ने अंग्रेजों से सुरक्षा मांगी।
तात्या टोपे ने बैजा बाई को ग्वालियर की बागडोर संभालने का आग्रह किया। लेकिन बैजा बाई ने परिस्थितियों को समझते हुए एक संतुलित रणनीति अपनाई और अपने परिवार तथा राज्य को संकट से बचाया।e

नारी भी थी छावा!
बैजा बाई सिंधिया का जीवन इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि छावा सिर्फ़ एक पुरुष होने की पहचान नहीं, बल्कि वह हर व्यक्ति हो सकता है जो साहस, नेतृत्व, बलिदान और बुद्धिमत्ता का प्रतीक हो।
फिल्म “छावा” अगर मराठा पराक्रम की कहानी कहती है, तो इसमें बैजा बाई जैसी वीरांगनाओं का योगदान भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए।
क्योंकि शौर्य केवल तलवार उठाने में नहीं, बल्कि सही समय पर सही निर्णय लेने में भी निहित होता है। और इस कसौटी पर बैजा बाई सिंधिया पूरी तरह खरी उतरती हैं।
“मराठा इतिहास केवल पुरुषों की वीरता की कथा नहीं, बल्कि यह नारी शक्ति की भी गौरवगाथा है!”

VIKAS TRIPATHI
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