नई दिल्ली | 19 जुलाई 2025: महाराष्ट्र सरकार ने 2006 मुंबई लोकल ट्रेन विस्फोट मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा 12 आरोपियों को बरी किए जाने के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की ‘जल्दबाजी’ पर सवाल उठाए हैं।
चीफ जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस के. विनोद चंद्रन और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की बेंच के सामने जब महाराष्ट्र सरकार के वकील ने मामले की तत्काल सुनवाई की मांग की, तो कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा –
“इतनी जल्दी क्या है? आठ लोग तो पहले ही रिहा हो चुके हैं। बरी करने पर रोक तो सिर्फ बहुत ही दुर्लभ मामलों में लगाई जाती है।”
24 जुलाई को होगी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई
सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अपील को तत्काल सुनवाई के लिए सूचीबद्ध करने की अपील की थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने मानते हुए गुरुवार, 24 जुलाई को सुनवाई की तारीख तय की है।
हाईकोर्ट ने सभी 12 आरोपियों को किया बरी
सोमवार को बॉम्बे हाईकोर्ट ने 2006 के मुंबई सीरियल ट्रेन ब्लास्ट केस में दोषी करार दिए गए सभी 12 आरोपियों को बरी कर दिया। कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष आरोप साबित करने में पूरी तरह विफल रहा।
फैसले में कोर्ट ने लिखा,
“यह विश्वास करना मुश्किल है कि आरोपियों ने अपराध किया। पर्याप्त सबूत न होने के कारण सभी को बरी किया जाता है।”
साथ ही कोर्ट ने निर्देश दिया कि यदि वे किसी अन्य मामले में वॉन्टेड नहीं हैं, तो उन्हें तुरंत रिहा किया जाए।
जांच एजेंसियों पर उठे गंभीर सवाल
19 साल बाद आए इस फैसले ने जहां आरोपियों के परिवारों को राहत दी है, वहीं महाराष्ट्र एटीएस और जांच एजेंसियों की कार्यशैली पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
हाईकोर्ट ने साफ कहा कि सिमी (SIMI) और लश्कर-ए-तैयबा (LeT) की संलिप्तता के एटीएस के दावे विश्वसनीय नहीं हैं।
एटीएस ने आरोप लगाया था कि आरोपी प्रतिबंधित संगठन सिमी के सदस्य थे और उन्होंने पाकिस्तानी आतंकियों के साथ मिलकर साजिश रची थी। लेकिन कोर्ट ने इन दावों को खारिज कर दिया।
देश के इतिहास का एक भीषण आतंकी हमला
11 जुलाई 2006 को मुंबई की लोकल ट्रेनों में हुए 7 सिलसिलेवार बम धमाकों में 180 से अधिक लोगों की जान गई थी।
2015 में एक विशेष अदालत ने 5 आरोपियों को फांसी और 7 को उम्रकैद की सजा सुनाई थी।
इनमें से एक मौत की सजा पाने वाले की 2021 में जेल में मौत हो गई थी।
अब हाईकोर्ट के फैसले से यह सजा निरस्त हो गई है।
फैसले के दूरगामी प्रभाव
जांच एजेंसियों की साख और कार्यप्रणाली पर सवाल
निर्दोषों को 19 साल तक जेल में रखना – न्यायिक प्रक्रिया की विफलता
आतंकवाद से जुड़े मामलों की जांच व अभियोजन के तरीके पर पुनर्विचार की आवश्यकता
पीड़ित परिवारों और आरोपियों – दोनों के लिए मानसिक संतुलन की चुनौती