नई दिल्ली – भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका की निष्पक्षता और नैतिकता को लेकर गंभीर सवाल उठ खड़े हुए हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा पर लगे कैश कांड के आरोपों के चलते अब उनके खिलाफ महाभियोग चलाने की प्रक्रिया शुरू हो गई है।
यह सिर्फ किसी एक जज के खिलाफ कार्रवाई नहीं, बल्कि न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता पर जनप्रतिनिधियों की सामूहिक जवाबदेही का परिचायक बन गया है।
208 सांसदों ने किया समर्थन, सभी दलों की दुर्लभ एकजुटता
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला और राज्यसभा सभापति जगदीप धनखड़ को सौंपे गए नोटिस में विपक्ष और सत्ता पक्ष, दोनों के सांसदों के हस्ताक्षर मौजूद हैं — एक ऐसा दृश्य जो भारतीय राजनीति में बिरले ही देखने को मिलता है।
लोकसभा में 145 सांसदों के हस्ताक्षर — जिनमें राहुल गांधी, रविशंकर प्रसाद, अनुराग ठाकुर जैसे नेता शामिल हैं।
राज्यसभा में 63 सांसदों के समर्थन के साथ नोटिस सौंपा गया है।
संविधान के अनुच्छेद 124, 217 और 218 के तहत यह नोटिस दिया गया है। किसी न्यायाधीश को हटाने के लिए लोकसभा में कम से कम 100 और राज्यसभा में 50 सांसदों की सहमति आवश्यक होती है, जो कि इस मामले में कहीं अधिक संख्या में मौजूद है।
कहानी की शुरुआत: जलता बंगला और गड्डियों से भरा कमरा
घटना 14 मार्च 2025 की रात की है — होली के दिन, जब दिल्ली में जस्टिस वर्मा के सरकारी बंगले में देर रात 11:35 बजे आग लग गई। वह उस समय दिल्ली में मौजूद नहीं थे।
परिवार की ओर से दमकल विभाग को बुलाया गया। जब आग बुझाने पुलिस और फायर ब्रिगेड पहुंची, तो एक चौंकाने वाला दृश्य सामने आया — बंगले के एक कमरे में करोड़ों रुपये की नकदी गड्डियों में भरी पड़ी थी।
सूत्रों के अनुसार, कमरे में फर्श से लेकर अलमारियों तक सिर्फ नोटों से भरी हुई थीं, मानो किसी हवाला ऑपरेशन का गोदाम हो।
यह सवाल अपने आप खड़ा हुआ — एक मौजूदा हाईकोर्ट जज के घर में इतना कैश कैसे और क्यों?
इन-हाउस जांच रिपोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की शरण
घटना के बाद इन-हाउस जांच समिति गठित की गई जिसमें सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीश शामिल थे।
रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया कि:
नकदी जस्टिस वर्मा और उनके परिवार की है।
वे इसका स्रोत स्पष्ट रूप से नहीं बता सके।
इस आधार पर समिति ने महाभियोग की सिफारिश की।
लेकिन महाभियोग से पहले ही जस्टिस वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में इस रिपोर्ट को चुनौती दी है। उन्होंने दावा किया कि जिस स्टोररूम में नकदी मिली, वह उनके नियंत्रण में नहीं था। सुप्रीम कोर्ट अब यह तय करेगा कि क्या इन-हाउस जांच वैध थी या नहीं।
यह मामला इसलिए भी विशेष बन गया क्योंकि इसी नकदी कांड के बाद जस्टिस वर्मा का ट्रांसफर दिल्ली हाईकोर्ट से इलाहाबाद हाईकोर्ट कर दिया गया था — एक प्रकार की “संवैधानिक सजा” जैसा संकेत।
महाभियोग प्रक्रिया क्या है?
नोटिस दायर होता है — जैसा कि हो चुका है।
स्पीकर की अनुमति के बाद जांच समिति गठित होती है जिसमें सुप्रीम और हाईकोर्ट के जज रहते हैं।
जांच समिति 1 से 3 महीने में रिपोर्ट सौंपती है।
अगर रिपोर्ट में आरोप सही पाए जाते हैं, तो प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से पारित किया जाता है।
अंतिम निर्णय राष्ट्रपति की मंजूरी पर निर्भर करता है।
कटाक्ष: क्या न्यायाधीश भी अब ‘अकाउंटेबल’ होंगे?
इस प्रकरण ने कई सवालों को जन्म दिया है:
क्या भारत की न्यायपालिका अब सामान्य प्रशासनिक भ्रष्टाचार से अछूती नहीं रही?
क्या जजों की निजी संपत्ति और वित्तीय पारदर्शिता की जांच अब अनिवार्य होनी चाहिए?
क्या संसद की नैतिक शक्ति न्यायपालिका पर संवैधानिक संतुलन बनाए रख सकेगी?
आगे क्या?
अब सबकी निगाहें हैं:
सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर, जो इन-हाउस रिपोर्ट की वैधता पर निर्णय देगा।
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला और राज्यसभा सभापति जगदीप धनखड़ पर, जो तय करेंगे कि महाभियोग प्रस्ताव को औपचारिक रूप से स्वीकार करना है या नहीं।
और अंततः, राष्ट्रपति भवन, जहां यह प्रस्ताव पहुंचने की संभावना बन रही है।