पिछले 10 वर्षों में सिर्फ अडानी, अम्बानी और 271 डॉलर अरबपति ही अपरम्पार समृद्ध नहीं हुए हैं, भाषा भी नयी-नयी व्यंजनाओं, रूपकों और मुहावरों से धनवान और मालामाल हुई है। यह तो मोदी जी का बड़प्पन है कि वे इस बात का कतई अभिमान नहीं करते कि उन्होंने किस तरह अब तक की प्रचलित, सार्वभौमिक और अब तक सर्वकालिक मानी जाने वाली उक्तियों को भी परिवर्धित कर दिया है। जैसे अब तक दुनिया यह मानकर बैठी थी कि झूठ केवल तीन तरह के होते हैं ; झूठ, सफ़ेद झूठ और आंकड़ों का झूठ!! पिछले 10 साल ने दुनिया की इस गलत और अधूरी धारणा को तोड़ दिया और इसमें झूठ के – अब तक – दो नए प्रकार और जोड़ दिए : एक आई टी सैल के दावे का परम झूठ, दूसरा मोदी जी की हांकी डींग का चरम झूठ। पिछली 2 अगस्त को नई दिल्ली में उन्होंने इसी चरम झूठ का परम प्रवाह किया और अंतर्राष्ट्रीय कृषि अर्थशास्त्रियों के 6 दिन चलने वाले सम्मेलन में उन्होंने बिना इस बात की परवाह किये कि वे उन अर्थशास्त्रियों के बीच बोल रहे हैं, जिनकी विशेषज्ञता ही इस क्षेत्र में है, भारत में कृषि के क्षेत्र में ऐसे दावों की झड़ी लगा दी – जो यथार्थ के आसपास होना तो दूर की बात रही, उसके ठीक उलटे थे।
सिर्फ मोदी ही हैं, जो यह कर सकते हैं : वे वैज्ञानिकों को विज्ञान पढ़ा सकते हैं, बिल गेट्स को कंप्यूटर कनेक्टिविटी पढ़ा सकते हैं, शैक्षणिक क्षेत्र के टॉपर्स को पढने की टिप्स दे सकते हैं, खिलाड़ियों को खेल सिखा सकते हैं, तो कृषि अर्थशास्त्रियों को ज्ञान देना तो उनके बांये हाथ का खेल है। हालांकि इतना सब बोलने की भी उन्हें जरूरत नहीं थी, सिर्फ अपने कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान को ही खड़ा कर देते, तो कृषि के क्षेत्र में उनकी उपलब्धियां शब्दशः मूर्त रूप में साकार हो जातीं। दुनिया बिन कहे ही समझ जाती कि जो सरकार फसल के दाम मांगने के संगीन जुर्म में 6 किसानों की दिनदहाड़े हत्या करवाने वाले मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री को देश का कृषि मंत्री बना सकती है, उसका किसान, खेती और किसानी के प्रति प्रेम कितना प्रबल है। न होता, तो राज्यसभा में दिया गया उनका वह दंभी कबूलनामा ही दिखा देते, जिसमे वे ज़रा-सी भी लज्जा या पश्चाताप के बिना एकदम शोहदों की तरह उन 6 युवा किसानों की पुलिस द्वारा की गयी हत्याओं को इस आधार पर जायज ठहरा रहे हैं, क्योंकि इससे पहले भी किसानों पर गोलियां चलवाई जाती रही हैं। बहरहाल फिलहाल उनके द्वारा किये गए दावों की सच्चाई पर ही एक नजर डाल लेते हैं।
अपने भाषण में वे भारत की खेती और किसानी और उसके 2000 साल पुराने ग्रंथ ‘कृषि पाराशर’ का जिक्र करते हुए दावा कर रहे थे, मगर उनके दावे ही इस बात की चुगली खा रहे थे कि जिसे वे कथित 2000 साल पुराना ग्रंथ बता रहे थे, उस ‘कृषि पाराशर’ की किताब में मोदी और उनकी सरकार ने झांका तक नहीं है। यदि उस का पहला पन्ना ही पलट लिया होता, तो उन्हें पता होता कि दो हजार साल नहीं बल्कि आठवीं सदी के बाद महर्षि पराशर द्वारा लिखे गए, कृषि के विभिन्न पहलुओं के बारे में बताने वाले इस ग्रन्थ की शुरुआत में ही कहा गया है कि ‘अन्न ही प्राण है, अन्न ही बल है ; अन्न ही समस्त अर्थ का साधन है। देवता, असुर, मनुष्य सभी अन्न से जीवित हैं तथा अन्न धान्य से उत्पन्न होता है और धान्य बिना कृषि के नहीं होता। कृषि बिना कृषक के नहीं होती।‘ और उस किसान की दशा क्या है? जिस वक़्त मोदी ऊंची-ऊंची हांक रहे थे, उसी वक़्त महाराष्ट्र का सिर्फ एक जिला अमरावती बता रहा था कि यहाँ के किसान मात्र 6 महीने में 557 किसान आत्महत्या करके किसानों की दुश्वारी के आत्मघाती होने का नया विश्व रिकॉर्ड स्थापित कर रहे थे। यही नहीं, पूरे विदर्भ में आत्महत्याओं की झड़ी सी लगी हुयी थी। समस्या सिर्फ विदर्भ की ही नहीं थी, कर्नाटक भी महज 15 महीनों में 1182 किसान आत्महत्याओं के साथ नया रिकॉर्ड बना रहा था। बाकी देश में भी कहीं कम, कहीं ज्यादा इसी तरह की मौतों की खबरें आयी और कारपोरेट मीडिया द्वारा दबाई जा रही थीं। खुद सरकार अपने बजट के पहले दिए जाने वाले आर्थिक सर्वेक्षण में कबूल कर रही थी कि देश में कृषि उत्पादन की वृद्धि दर लगातार गिरती जा रही है और गिरते-गिरते 2022-23 की लगभग 5 प्रतिशत से गिरकर एक चौथाई रह गयी है और 1.4 तक आ गयी है। अगर यही खेती और किसान के बेहतरी है, तो जाहिर है कि बदतरी के लिए कोई नया शब्द ढूंढना होगा।
दुनिया के 75 देशों से आये कोई 1000 कृषि अर्थशास्त्रियों का मोदी जिन ‘भारत के 12 करोड़ किसानों, 3 करोड़ से अधिक महिला किसानों, 3 करोड़ मछुआरों और 8 करोड़ पशुपालकों की ओर से सभी गणमान्य व्यक्तियों का स्वागत’ करते हुए हांक रहे थे कि “यहाँ 50 करोड़ पशुधन हैं। मैं आपका कृषि और पशु-प्रेमी देश भारत में स्वागत करता हूं।”, उन्हीं मोदी और उनकी पार्टी की सरकारों में पशुपालकों और उसके लिए पशु खरीद कर लाने वालों की किस तरह से निर्मम हत्याएं की जा रही थीं, यह तकरीबन हर सप्ताह की खबर बन रही थी। उसी देश में जब मोदी की किसान विरोधी नीतियों को वापस लौटाने के लिए देश की राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर बैठे 750 किसान शहादतें दे रहे थे – तब मोदी बांसुरी बजा रहे थे।
मोदी ने कहा कि आज “भारत खाद्य अधिशेष वाला देश है, दूध, दालों और मसालों का सबसे बड़ा उत्पादक है, और खाद्यान्न, फल, सब्जियां, कपास, चीनी, चाय और मत्स्य पालन का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।” उन्होंने उस समय को याद किया, जब “भारत की खाद्य सुरक्षा दुनिया के लिए चिंता का विषय थी, जबकि आज भारत वैश्विक खाद्य और पोषण सुरक्षा के लिए समाधान प्रदान कर रहा है।” वे जिन भंडारों में भरे, अनबिके अनाज के अधिशेष के लिए अपनी पीठ खुद ही थपथपा रहे थे, यह दरअसल वह अनाज है, जो भूखे भारतीयों के पेट में पहुंचना था, मगर महंगी कीमतों में उसे खरीदने की ताकत न होने के चलते गोदामों में ही सड़ता रहा और दुनिया के दूसरे देशों में शराब और ईंधन बनाने के लिए भेजा जाता रहा – नतीजा यह निकला कि जब
वे पूरी दुनिया का पेट भरने और उसका सही तरीके से पोषण करने का दावा ठोक रहे थे, तब खुद उनका देश भारत भुखमरी की त्रासदी के आंकड़ों में 125 देशों में से 111वें स्थान पर अपनी कातर स्थिति दर्ज करा रहा था। उनकी सरकार इन आंकड़ों का खंडन कर रही थी, मगर दूसरी तरफ देश के 80-85 करोड़ नागरिकों को 5 किलो अनाज हर महीने देकर उन्हें ज़िंदा रखने को अपनी उपलब्धि बताकर इस भयानक सच्चाई को कबूल भी कर रही थी।
उनका दावा था कि “उनकी आर्थिक नीतियों के केंद्र में कृषि है।” वह कितनी है, इसे महज कुछ दिन पहले संसद में पेश किया गया उनकी सरकार का बजट बता रहा था, जिसमें कृषि और उससे जुड़े कामों के बजट में पिछले साल की तुलना में 21. 2 प्रतिशत की कमी कर दी गयी है। गरीब किसानों की मदद करने वाले ग्रामीण रोजगार गारंटी क़ानून को मखौल बनाकर रख दिया गया है। उनकी आर्थिक नीतियों के केंद्र में कृषि किस तरह से है, इसका प्रमाण वे तीन कृषि क़ानून थे, जिन्हें किसानों ने 378 दिन की लड़ाई के बाद वापस कराया था और जिन्हें पिछले दरवाजे से वापस लाने की तिकड़में आज भी जारी हैं। जिन ‘छोटे किसानों को मुख्य ताकत और खाद्य सुरक्षा का आधार’ बताते हुए उनके लिए पिछली 10 वर्षों में 1900 नई जलवायु अनुकूल किस्में सौंपने की डींग वे हांक रहे थे, उसकी असलियत जहां वे भाषण दे रहे थे, उससे ज़रा सी दूरी पर, राजधानी का ही विस्तार माने जाने वाले हरियाणा में किसान अपनी कपास की बर्बाद फसल को आग लगाकर, उस पर ट्रेक्टर चलाकर बयान कर रहा था। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के झूठे दावों वाले बी टी कॉटन के बीज से उपजी तबाही के दंश झेल रहा था। इन छोटे किसानों के लिए वाहवाही लूटने वाले मोदी यह सच जानबूझकर छुपा गए कि इनमें से ढाई से तीन हजार किसान हर रोज अपनी खेती छोड़ रहे हैं, क्योंकि अब वह उनके लिए गले का फंदा बन चुकी है। यह भी कि अब इनका बड़ा हिस्सा – बहुत बड़ा हिस्सा – ऐसा है, जो बजाय बड़े किसान की जमीन बटाईदारी पर लेने के औने-पौने दामों में अपनी जमीन उसे दे रहा है। उनकी आर्थिक नीतियों के केंद्र में यकीनन कृषि है, लेकिन विकास के लिए नहीं, विनाश के लिए ; यह वह आर्थिक नीतियाँ हैं, जिन पर चलते हुए हर वर्ष लाखों एकड़ खेती की जमीन को दरबारी कारपोरेटियों को सौंप कर किसान को बेदखल और कृषि को तबाह किया जा रहा है। ऐसे हालात पैदा किये जा रहे है, जिनका असर आने वाली कई पीढ़ियों को भीषण गरीबी की बाढ़, रोजगारहीनता के सूखे, यहाँ तक कि अठारहवीं सदी के भयानक अकालों के रूप में भी भुगतना पड़ सकता है।
बहरहाल, भले काले चावल के बहाने सही उनकी जुबान पर मणिपुर का नाम तो आया। लगता है, उन्हें सिर्फ ‘सुपर फूड्स’ के नाम पर मार्केटिंग कर रही कारोबारी कंपनियां के विज्ञापन ही दिखते है ; अंडमान से कश्मीर, बिहार और बाकी ऐसे प्रदेश नहीं दीखते, जहां किसानों द्वारा उपजाए गए चावल की कीमतें 1000 से 1200 रुपयों की शर्मनाक नीचाईयाँ छू रही हैं। उन्होंने कहा कि अपने 10 साल के राज में 10 लाख हेक्टेयर जमीन को उन्होंने सूक्ष्म सिंचाई से सिंचित करने का काम किया है। इसकी असलियत उनके ही विभागों की रिपोर्ट्स बता रही थी : केन्द्रीय जल आयोग कह रहा था कि देश के 150 बड़े जल स्रोत अपनी क्षमता से 27 प्रतिशत नीचे चले गए हैं। कारपोरेट कंपनियों के अंधाधुंध दोहन से भूजल स्तर पाताल की नीचाई तक जा पहुंचा है और आधा भारत बाढ़, एक तिहाई भारत सूखे की चपेट में है, कर्नाटक में चार दशक का सबसे भयानक सूखा है। बिगड़ते मौसम के चलते तमिलनाडु के किसान नारियल के पेड़ काटने के लिए मजबूर हैं और इसी जनवरी और मार्च के बीच मौसम के उतार-चढाव के चलते चाय के उत्पादन में 2 करोड़ 10 लाख किलोग्राम से अधिक की कमी आयी है। देश के 9 प्रदेशों में 20 से 49 प्रतिशत तक कम वर्षा हुई है, वहीं 6 राज्य अतिवृष्टि के शिकार बने हैं। ऐसे में चारों तरफ हरा-हरा अगर किसी को दिख रहा है, तो वे मोदी ही हैं – बाकी देश तो उन्हें चुनने का दंड भुगतने का अभिशाप अपनी खेती के दिनों-दिन अलाभकारी होने के रूप में झेल रहा है।
वे जिन-जिन नयी तकनीकों और प्रयोगों को गिना रहे थे, वे ‘ज्यों-ज्यों दिन की बात की गयी, त्यों-त्यों रात हुई’ जैसे थे। जैसे उन्होंने ड्रोन से फसलों के डिजिटल सर्वे को किसानों के लिए किया गया भारी काम बताया, जबकि असल में इसके द्वारा जुटाए गए कथित आंकड़ों में बीमा कम्पनियां अपने हिसाब से तोड़-मरोड़ कर किसानों को दिए जाने वाले मुआवजे से बचने के लिए इस्तेमाल कर रही हैं, किसान की भूमि का रिकॉर्ड तक गड़बड़ा रहा है। उन्होंने 1 करोड़ किसानों को उस तथाकथित नेचुरल फार्मिंग – बिना खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल के किये जाने वाली खेती – से जोड़ने का दावा किया है, जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। यह वही खेती है, जिसका खामियाजा अभी हाल ही में श्रीलंका के किसानों ने दिवालिया होकर और वहां की जनता ने भुखमरी का शिकार होकर चुकाया है।
इधर वे ‘प्रधानमंत्री’ शब्द के पुंछल्ले वाली किसान हितैषी योजनाओं के नाम दर नाम गिना रहे थे, 10 करोड़ किसानों को पी एम किसान योजना और न जाने कौन-कौन सी योजनाओं का हितग्राही होने का दावा कर रहे थे, उधर उनकी वित्त मंत्राणी इन सबके लिए बजट आबंटन को या तो स्थिर बनाये रखने या पहले से घटाने के प्रस्ताव रख रहीं थीं।
बहरहाल कुछ सच इतने विराट और चमकीले हरूफों में समय की दीवार पर दर्ज होते हैं कि उन्हें झूठ की सुनामी भी ओझल या धुंधला नहीं कर सकती। भले ही मोदी ने जिक्र नहीं किया, मगर दुनिया भर से आये अर्थशास्त्रियों को पता था कि जहां खड़े होकर भारत के प्रधानमंत्री उन्हें भारत की कृषि और किसानों की चमचमाती छवि दिखा रहे हैं, उससे आवाज भर की दूरी पर दिल्ली की छहों बॉर्डर्स पर अभी-अभी देश के किसान कोई 13 महीनों तक डेरे डाले हुए थे। खेती-किसानी पर कारपोरेट कंपनियों के कब्जे को रोकने और फसल के उचित दाम देने सहित अपनी मांगों को उठा रहे थे, अपने संघर्ष की धमक से देश-दुनिया को हिला रहे थे। यही ऐतिहासिक संग्राम था, जिसने मोदी की पार्टी को संसद में अल्पमत में ला दिया और सरकार बनाने का नैतिक अधिकार छीन लिया। किसान आन्दोलन के केंद्र की 38 सीटों पर ही नहीं, देश की ग्रामीण आबादी के बहुमत वाली 159 लोकसभा सीटों पर भाजपा और उसके सहयोगी दलों के उलटे बांस बरेली को बाँध दिए – यहाँ तक कि उनके कृषि मंत्री तक को चुनाव हरा दिया।
इस सबके बाद भी यदि वे अपने मुंह मियाँ मिट्ठू बनकर अडानी-अंबानी की बढ़ती तोंदों को अपनी कामयाबियों के रूप में गिनाते हुए आत्ममुग्ध होना चाहते हैं, तो भले हो लें, उनका पालक-पोषक कारपोरेट मीडिया उनके झूठों का गुणगान कर सकता है, मगर ये पब्लिक है और वो सच जानती है ।
(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)
VIKAS TRIPATHI
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