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झारखंड और बिहार के उपचुनाव 2024 के नतीजों ने कई राजनीतिक समीकरण बदल दिए हैं। झारखंड में हेमंत सोरेन की इंडिया गठबंधन ने शानदार जीत हासिल की, वहीं बिहार में प्रशांत किशोर (पीके) की रणनीति ने नया खेल रच दिया। राजद के गढ़ में सेंध लगाते हुए पीके के उम्मीदवारों ने तीसरा स्थान तो पाया, लेकिन प्रभावशाली वोटों के साथ।
झारखंड: माई-माटी का साथ
हेमंत सोरेन ने झारखंड में एक बार फिर जनता का दिल जीत लिया। “मैया सम्मान योजना, जिसमें गरीब महिलाओं को सालाना 12 हजार रुपये दिए जाते हैं, ने चुनावी समीकरण बदल दिए। आदिवासी और ओबीसी वोटर का समर्थन भी हेमंत के पक्ष में रहा।
भाजपा की हार की एक बड़ी वजह उसका कमजोर नेतृत्व और गुटबाजी रही। चंपी सोरेन जैसे नेताओं के पार्टी में आने के बावजूद भाजपा आदिवासी वोटरों को साधने में असफल रही।
पॉलिटिकल पुष्पा बने हेमंत
जेल जाने के बाद हेमंत सोरेन को आदिवासी समुदाय की भारी सहानुभूति मिली। उनकी पत्नी कल्पना सोरेन ने प्रचार अभियान को संभालकर उन्हें मजबूत बनाया। भाजपा के लिए यह एक सबक है कि जेल भेजने की रणनीति उल्टी भी पड़ सकती है। हेमंत इस पूरे घटनाक्रम से एक पॉलिटिकल पुष्पा के रूप में उभरे—”झुकेंगे नहीं, टूटेंगे नहीं।”
बिहार: पीके का बड़ा असर
प्रशांत किशोर ने बिहार के चुनावी मैदान में हलचल मचा दी। इमामगंज में जनसुराज के जीतेंद्र पासवान को 37 हजार से ज्यादा वोट मिले, जबकि राजद के रौशन कुमार हार गए। बेलागंज में पीके के मोहम्मद अमजद ने 17 हजार वोट पाकर राजद को हराया। रामगढ़ में भी पीके की पार्टी ने बसपा को दूसरे और राजद को तीसरे स्थान पर पहुंचा दिया।पीके ने राजद के लिए एक चुनौती खड़ी कर दी है। यदि यही ट्रेंड 2025 विधानसभा चुनाव तक बना रहा, तो राजद का भविष्य खतरे में पड़ सकता है।
तेजस्वी के लिए बड़ा सबक
तेजस्वी यादव के नेतृत्व पर सवाल खड़े हो रहे हैं। सुरेंद्र यादव के बेटे को बेलागंज से टिकट और जगदानंद सिंह के बेटे को रामगढ़ से टिकट देने जैसे फैसलों ने पारिवारिक समाजवाद की आलोचना को जन्म दिया।
तेजस्वी को अब यह समझना होगा कि बिहार 90 के दशक से काफी आगे बढ़ चुका है। बाहुबली और परिवारवाद की राजनीति अब स्वीकार्य नहीं है। यदि तेजस्वी समय रहते आत्ममंथन नहीं करते, तो प्रशांत किशोर जैसी नई ताकतें उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती हैं।
भविष्य की राजनीति का संकेत
यह चुनाव न केवल हेमंत सोरेन की लोकप्रियता को मजबूत करता है, बल्कि प्रशांत किशोर की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की गंभीर शुरुआत को भी दिखाता है। वहीं, तेजस्वी यादव के लिए यह आत्ममंथन का समय है। राजनीति में माई-माटी और जनता के विश्वास के बिना आगे बढ़ना मुश्किल होगा।
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VIKAS TRIPATHI
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