भगवान के उपकारों की गिनती नहीं हो सकती। चाहे हम उन्हें मानें या न मानें, उनका विरोध करें या अनदेखा करें, वे फिर भी हमें निरंतर उपकृत करते रहते हैं। लेकिन जब हम उन्हें सच्चे मन से अपना मान लेते हैं, तब भगवान की कृपा का भण्डार खुल जाता है।
सोचिए, अगर संसार में कोई हत्यारा अदालत में यह कहे कि अब वह कभी हत्या नहीं करेगा और वचन देकर माफी मांगे, तो अदालत कहेगी, “पहले तुम्हारे किए अपराध का दंड भोगो, उसके बाद भविष्य में ऐसा न करना।” लेकिन भगवान की अदालत में ऐसा नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण भगवद्गीता में कहते हैं:
“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥”
(गीता १८.६६)
अर्थात, “तुम मेरी शरण में आ जाओ, फिर मैं तुम्हारे अनन्त जन्मों के पापों को भस्म कर दूँगा।”
भगवान सिर्फ पापों को ही नहीं मिटाते, वे अपना परम आनंद भी देते हैं और अपने भक्तों की सेवा करते हैं। जैसे एक माँ अपने नवजात शिशु की सेवा में लगी रहती है, वैसे ही भगवान भी अपनी शरण में आए हुए भक्तों का ध्यान रखते हैं। गीता में भगवान कहते हैं:
“ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।”
(गीता ४.११)
यानि, “जैसे जैसे कोई मेरी शरण में आता है, मैं उसी प्रकार उसकी सेवा करता हूँ।”
भगवान योगक्षेम की भी जिम्मेदारी लेते हैं, यानी जो भक्त को नहीं मिला, उसे दिलाना और जो मिला है, उसकी रक्षा करना। उनके शरणागत को कुछ करने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि भगवान उसकी सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेते हैं। महापुरुष, जो भगवत्प्राप्ति कर चुके होते हैं, उनके जीवन का कार्य भगवान करते हैं। वे खुद कुछ नहीं करते, बल्कि भगवान उनके माध्यम से कार्य करवाते हैं।
भगवान का उपकार इतना विशाल है कि वह शरणागत और अशरणागत दोनों पर ही बरसता है। लेकिन जो कृतघ्न होता है, वह इस उपकार को नहीं मानता। संसार में भी, कई बार बच्चे अपने माता-पिता के उपकारों को नहीं मानते, तो भगवान के उपकार का क्या कहें?
भगवान का आभार मानना ही जीव का सबसे बड़ा कर्तव्य है, और गुरु का आभार उससे भी बढ़कर है। क्योंकि गुरु ही वह होता है, जो हमें भगवान के उपकारों का बोध कराता है, हमें गंदगी से निकालता है, और हमारा अन्तःकरण शुद्ध करता है। इसलिए शास्त्रों में गुरु को भगवान से भी ऊँचा स्थान दिया गया है।
इसलिए, जब हमारी सोच में यह बात पूरी तरह से बैठ जाती है कि भगवान और गुरु ही हमारे सच्चे मित्र हैं, तब हमें योगक्षेम की चिंता नहीं रहती। शरणागति निरंतर होनी चाहिए, उसमें कभी भी विराम नहीं होना चाहिए। भगवान और गुरु के उपकारों को महसूस करना ही हमारी साधना है, और इस साधना को न करना हमारी सबसे बड़ी भूल है।
VIKAS TRIPATHI
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