लखनऊ: भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने देश के 22 राज्यों में अपने प्रदेश अध्यक्षों की नियुक्ति कर दी है, लेकिन उत्तर प्रदेश जैसे सबसे बड़े और सबसे अहम राज्य में अभी तक नया अध्यक्ष तय नहीं हो सका है। वजह है—2027 विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए जातीय और सामाजिक समीकरणों की जटिल पहेली, जिसमें भाजपा कोई जल्दबाज़ी नहीं करना चाहती।
UP अध्यक्ष को लेकर गहराई तक सोच रही है बीजेपी
भाजपा जानती है कि उत्तर प्रदेश का अगला प्रदेश अध्यक्ष सिर्फ संगठनात्मक चेहरा नहीं होगा, बल्कि वह पार्टी की राजनीतिक दिशा और चुनावी रणनीति का प्रतीक बनेगा। यही कारण है कि अब तक केशव प्रसाद मौर्य, स्वतंत्र देव सिंह और भूपेंद्र चौधरी जैसे ओबीसी चेहरों को प्राथमिकता दी गई थी, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों में हुए नुकसान और सपा के पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) गठजोड़ की काट ने भाजपा को नए समीकरण पर विचार करने को मजबूर कर दिया है।
ब्राम्हण बनाम ओबीसी: सत्ता-संगठन के संतुलन की चुनौती
वर्तमान में सत्ता योगी आदित्यनाथ (ठाकुर समुदाय) के पास है, ऐसे में भाजपा संगठन की बागडोर ओबीसी या दलित समुदाय के किसी नेता को सौंपकर सामाजिक संतुलन कायम करना चाहती थी। लेकिन इटावा में हुई हालिया घटनाओं के बाद ब्राह्मण समाज में उभरे असंतोष ने भाजपा को रणनीति बदलने पर मजबूर किया है।
अब पार्टी के सामने यह दुविधा है:
अगर संगठन भी सवर्ण (ब्राह्मण) के हाथ में जाता है तो ओबीसी नाराज हो सकता है।
यदि फिर से ओबीसी नेता को प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाता है, तो ब्राह्मण समाज और कोर सवर्ण वोट बैंक को साधे रखना मुश्किल हो सकता है।
बीजेपी बनाम पीडीए: नेतृत्व के जरिए राजनीतिक संदेश
2024 में समाजवादी पार्टी ने पीडीए समीकरण के जरिए भाजपा को तगड़ा झटका दिया — पार्टी की सीटें 62 से घटकर 33 पर आ गईं। ऐसे में अब भाजपा अपने अगले प्रदेश अध्यक्ष के रूप में एक ऐसा चेहरा सामने लाना चाहती है, जो न केवल जातीय समीकरणों को संतुलित करे बल्कि सपा के गठजोड़ की धार को भी कुंद करे।
इसके तहत कुछ संभावित नाम चर्चा में हैं:
ओबीसी वर्ग से: बीएल वर्मा (लोधी), धर्मपाल सिंह, बाबूराम निषाद, अशोक कटारिया
ब्राह्मण वर्ग से: राम शंकर कठेरिया, विद्यासागर सोनकर
भाजपा की रणनीति है कि 2027 के चुनाव से पहले संगठन की कमान ऐसे नेता को दी जाए जो गैर-यादव ओबीसी वोटों को एकजुट कर सके और सपा के जातिगत गठबंधन की काट पेश कर सके।
ब्राह्मण कार्ड: क्या इटावा घटना ने समीकरण बदले?
इटावा की घटना ने भाजपा को नया अवसर दिया है, जिसमें वह सपा से नाराज़ ब्राह्मण वोट बैंक को अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर सकती है। हालांकि, यह चाल भाजपा की पीडीए विरोधी रणनीति को कमजोर कर सकती है। इसलिए पार्टी अध्यक्ष की नियुक्ति को लेकर दिल्ली से लेकर लखनऊ तक गहन विचार-मंथन चल रहा है।
सिर्फ चेहरा नहीं, संदेश भी है
उत्तर प्रदेश का भाजपा अध्यक्ष इस बार सिर्फ एक पद नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रतीक होगा। पार्टी एक ऐसे नाम की तलाश में है जो संगठन की मजबूती, जातीय संतुलन और सियासी संदेश—तीनों स्तरों पर फिट बैठे।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि:
“अखिलेश यादव का पीडीए फॉर्मूला भाजपा के सवर्ण-ओबीसी समीकरण को चुनौती देने में सफल रहा है। अब भाजपा को उसका जवाब भी उतनी ही मजबूती से देना होगा—और प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति पहला बड़ा संकेत हो सकता है।”
प्रदेश अध्यक्ष कब मिलेगा? जानें प्रक्रिया और संभावित टाइमलाइन
भाजपा के 22 राज्यों में अध्यक्ष नियुक्त हो चुके हैं, जिससे राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की बाधा हट गई है। संगठन के नियमों के अनुसार, हर विधानसभा क्षेत्र से एक प्रतिनिधि वोट करता है, और सांसद-विधायक जैसे सार्वजनिक पदों पर बैठे लोग भी वोटिंग में हिस्सा लेते हैं।
इस प्रक्रिया में:
वोटर लिस्ट तैयार होगी
नामांकन की तारीख तय होगी
नाम वापसी की अंतिम तिथि के बाद चयन की घोषणा होगी
चूंकि यह एक जटिल और विस्तृत प्रक्रिया है, इसमें कम से कम चार दिन का समय लगता है। भाजपा संभवतः पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष की घोषणा, फिर यूपी प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति करेगी।
उत्तर प्रदेश भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष का चयन सिर्फ संगठनात्मक औपचारिकता नहीं, बल्कि पार्टी की 2027 की चुनावी रणनीति का ब्लूप्रिंट होगा। भाजपा इस निर्णय के जरिए एक तरफ सामाजिक संतुलन साधना चाहती है, तो दूसरी ओर सपा के जातिगत गठबंधन को टक्कर देने की सियासत भी खड़ी कर रही है। अब देखना है कि भाजपा किस वर्ग और किस चेहरे को कमान सौंपकर अगली जंग के लिए मैदान में उतरती है।