Thursday, October 16, 2025
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संविधान-स्थगित बस्तर : जहां रघु मीडियामी के लोकतांत्रिक अधिकार खत्म हो जाते हैं! (आलेख : संजय पराते)

‘इंडियन एक्सप्रेस’ की एक पुरानी रिपोर्ट से बात शुरू कर रहा हूं। दिसंबर 2014 की इस रिपोर्ट के अनुसार : जनवरी 2009 से मई 2014 के बीच 65 महीनों में बस्तर में केवल 139 नक्सलियों ने समर्पण किया था, लेकिन जून नवम्बर 2014 के बीच 6 महीनों के ‘कल्लूरी राज’ (तत्कालीन डीजीपी एसआरपी कल्लूरी) 377 आत्म समर्पण में हो जाते हैं और इसमें भी नवम्बर 2014 में 155 आत्म समर्पण! अखबार की छानबीन के अनुसार, इनमें से 270 लोगों का नक्सली के रूप में कोई पुलिस रिकॉर्ड ही नहीं था। इसलिए इनमें से किसी को पुनर्वास/मुआवजा भी नहीं मिला। लगभग 100 लोगों को 2000-5000 रुपयों तक की ही मदद मिली तथा केवल 10 को चतुर्थ श्रेणी की नौकरी।

‘इंडियन एक्सप्रेस’ की इस रिपोर्ट का आज तक छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा आधिकारिक खंडन नहीं हुआ है और इसलिए इस रिपोर्ट को सही माना जा सकता है। स्पष्ट है कि उक्त आत्म समर्पण में भी बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़ा किया गया था। इस प्रकार एक सामान्य नागरिक के भी नागरिक अधिकारों और उसके इज्जत से जीने के अधिकार को ही बड़े पैमाने पर कुचलकर कुछ लोगों की तकदीर चमकाने और वाहवाही लूटने का काम किया गया था।

मार्च 2017 में ‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ की एक फैक्ट फाइंडिंग टीम ने बस्तर का दौरा किया था। इसने बड़ी संख्या में वहां के पत्रकारों से बात की, जिसमें उन्होंने स्वीकार किया कि वे स्वतंत्र रूप से रिपोर्टिंग नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि उन पर पुलिस और नक्सलियों दोनों का दबाव रहता है, उनके फोन टेप किए जाते हैं और अघोषित रूप से निगरानी रखी जाती है। प्रतिष्ठित अखबार ‘देशबंधु’ के संपादक (अब दिवंगत) ललित सुरजन ने टीम को बताया था कि अगर आप स्वतंत्र रूप से तथ्यों का विश्लेषण करना चाहे, तो वे सीधे-सीधे पूछते हैं कि आप सरकार के साथ हों या माओवादियों के? बीबीसी के पत्रकार आलोक पुतुल ने जब एक खबर के लिए एसआरपी कल्लूरी का पक्ष जानना चाहा था, तो उन पर न सिर्फ पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग का आरोप लगाया गया था, बल्कि यह भी कहा गया था कि ‘देशभक्त’ मीडिया पुलिस के साथ है। इसके बाद उन्हें तुरंत वह इलाका छोड़ देने की धमकी दी गई थी। सभी जानते है कि यह ‘देशभक्त मीडिया’ ही आज ‘गोदी मीडिया’ में बदल गया है।

ये 8-10 साल पहले का बस्तर था। लेकिन आज भी कुछ नहीं बदला है, कुछ भी नहीं, बल्कि बहुत कुछ बिगड़ा ही है। छत्तीसगढ़ के सुदूर बस्तर में नक्सलियों से निपटने और उनको कुचलने के नाम पर आदिवासियों के मानवाधिकारों को कुचलने और राज्य प्रायोजित हत्या और गिरफ्तारियों का दौर जारी है। सरकारी दावे के अनुसार, भाजपा राज के पहले आठ महीनों में 147 माओवादी मुठभेड़ में मारे गए हैं, 631 ने आत्म समर्पण किया है और 723 को गिरफ्तार किया गया है। इन आंकड़ों में कितने वास्तव में नक्सली हैं और कितने निर्दोष ग्रामीण, यह छानबीन का विषय है। जब तक किसी मुठभेड़, आत्मसमर्पण या गिरफ्तारी की वास्तविकता की खबर जंगल से छनकर, गोदी मीडिया के दुष्प्रचार को भेदकर जिला मुख्यालय या राजधानी तक पहुंचती है, इस बीच कई और घटनाएं होकर छानबीन की लाइन में खड़ी हो जाती है।

सरकारी दावे के अनुसार, भाजपा के सत्ता में आने के बाद माओवाद अब अपनी अंतिम सांसें ले रहा है। इसके सबूत के बतौर वह उन आंकड़ों को पेश करती है, जो मुठभेड़ में मारे गए हैं, या जिन्होंने आत्म समर्पण कर दिया है, या जिनकी गिरफ्तारियां हुई है। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के पिछले 25 सालों से भाजपा और कांग्रेस आंकड़ों का यह खेल खेल रही है। लेकिन इसके विपरीत हकीकत यही है कि बस्तर का बड़े पैमाने पर सशस्त्रीकरण हुआ है और आज हर 9 नागरिकों के सिर पर एक पैरा मिलिट्री जवान की बंदूक तनी हुई है। बस्तर रेंज में हर 2-7 किमी. के बीच सुरक्षा बल का एक कैंप मौजूद है। कांग्रेस राज में वर्ष 2019-23 के बीच बस्तर संभाग में सुरक्षा बलों के 250 से ज्यादा कैंप स्थापित किए गए, तो भाजपा के पास भी आदिवासी गांवों को खुशहाल बनाने के लिए कैंप स्थापित करने की ही योजना है। भाजपा के सत्ता में आने के एक साल के अंदर ‘योजना’ बनाकर गांवों में लगभग 50 कैंप स्थापित किए गए हैं और उसने इस योजना को बड़ा ही खूबसूरत नाम दिया है — नियाद नेल्लानार (मेरा गांव खुशहाल) योजना! कांग्रेस और भाजपा दोनों ने आदिवासियों को बुनियादी मानवीय सुविधाएं भले न दी हो, लेकिन उनकी खुशहाली के लिए कैंप जरूर दिए हैं।

लेकिन आदिवासी है कि वे न तो भाजपा की खुशहाली को स्वीकार कर रहे हैं और न उन्होंने कांग्रेस की खुशहाली को स्वीकार किया, तो क्यों? इसलिए कि ये कैंप उन्हीं के उत्पीड़न के लिए उन्हीं को बर्बाद करके बनाए जा रहे है। कांग्रेस-भाजपा राज में स्थापित इन कैंपों में एक भी कैंप ऐसा नहीं है, जो आदिवासियों को उनकी भूमि से खदेड़कर खड़ा नहीं किया गया हो ; एक भी कैंप ऐसा नहीं है, जिसके लिए आदिवासियों की ग्रामसभा की सहमति ली गई हो ; सुरक्षा बलों के साए में किए जा रहे सड़क निर्माणों में एक भी ऐसा निर्माण नहीं है, जिसके लिए आदिवासियों की सहमति ली गई हो। इन निर्माणों में, और इसको सुनिश्चित करने के लिए हो रही मुठभेड़ों, किए जा रहे आत्म समर्पणों और गिरफ्तारियों में अफसरों, ठेकेदारों और नेताओं की सांठगांठ से कितना भ्रष्टाचार हो रहा है, पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या की कहानी यह सब बताने के लिए काफी है। दिल्ली और रायपुर से चलकर बस्तर के जंगलों तक पहुंचते-पहुंचते हमारा संविधान और आदिवासियों को इससे मिलने वाली शक्तियां दम तोड़ देती है।

सरकारी दावे के अनुसार, जैसे जैसे बस्तर में माओवाद या नक्सलवाद दम तोड़ रहा है, वैसे-वैसे बस्तर में सशस्त्रीकरण बढ़ता जा रहा है। अब भाजपा राज में अबूझमाड़ में सेना का युद्धाभ्यास रेंज बनाने की तैयारी की जा रही है। इसके लिए 54000 हेक्टेयर (1.35 लाख एकड़) भूमि की आवश्यकता है। यह भूमि नारायणपुर जिले के कोहकमेटा तहसील की 13 ग्राम पंचायतों के 52 गांवों को विस्थापित कर हासिल की जाएगी। इस समय इन 52 गांवों की सम्मिलित आबादी लगभग 10000 हैं। ‘देशद्रोही’ करार दिए जाने का खतरा लेकर भी यह सवाल जरूर पूछा जाएगा कि सेना के लिए युद्धाभ्यास रेंज बनाने की इस परियोजना में बस्तर का कितना विकास समाया हुआ है? 52 गांवों का विस्थापन पेसा अधिनियम के अनुसार आदिवासियों की सहमति से किया जाएगा या फिर बंदूक की नोक पर?

साफ है कि माओवाद तो बहाना है, असली बात है बस्तर की प्राकृतिक संपदा को कॉरपोरेटों के हवाले करने की मुहिम में विरोध में उठने वाली आवाज को तुरंत शांत करना। हाल ही में जल, जंगल और जमीन को कॉरपोरेटों को सौंपने की मुहिम का विरोध कर रहे तथा पेसा और वनाधिकार कानून को लागू करने की मांग पर चलाए जा रहे आंदोलनों का नेतृत्व करने वाले रघु मीडियामी की गिरफ्तारी ने फिर यह सवाल सामने लाकर खड़ा कर दिया है कि क्या बस्तर में लोकतांत्रिक अधिकार प्रतिबंधित हैं? इस गिरफ्तारी की मानवाधिकार संगठनों ने तीखी निंदा की है।

माओवादी संगठनों से जुड़ाव के आरोप में 24 साल के रघु की गिरफ्तारी एनआईए ने 27 फरवरी को की है। सुकमा जिले के सिलगेर गांव में आदिवासियों की जमीन छीनकर सीआरपीएफ कैंप स्थापित करने के विरोध में मई 2021 में स्थानीय आदिवासियों के एक विरोध प्रदर्शन में गोलियां चलाई गई थीं, इसमें एक गर्भस्थ शिशु सहित 5 लोगों की मौतें हुई थी। तब राज्य में कांग्रेस सरकार थी। कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार का रवैया भी आदिवासियों के प्रति ठीक वैसा ही था, जैसे पूर्ववर्ती भाजपा की रमन सिंह सरकार का। यह हमारा सामान्य अनुभव है कि चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों कॉरपोरेटों के प्रति नतमस्तक ही रही है और इनकी सेवा करने के लिए आदिवासियों के अधिकारों को कुचलने में भी उन्हें शर्म नहीं आती।

रघु मीडियामी इसी सिलगेर आंदोलन से उभरा चेहरा है, जिन्होंने आदिवासियों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ स्थानीय स्तर पर मूलवासी बचाओ मंच नाम का एक संगठन बनाया। इस संगठन के बैनर पर देखते ही देखते 30 से ज्यादा जगहों पर कांग्रेस सरकार की आदिवासी विरोधी और कॉर्पोरेटपरस्त नीतियों के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया। बस्तर जैसे विरल आबादी वाले गांवों से औसतन एक लाख से ज्यादा आदिवासियों का दिन-रात के इन धरनों में जुटना बहुत ही महत्वपूर्ण था। ये आदिवासी शांतिपूर्ण ढंग से, लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन कर रहे थे। ये आदिवासी लोकतंत्र की मुख्यधारा से अपने को जोड़ रहे थे। लेकिन तब की कांग्रेस की सरकार ने और अब की भाजपा सरकार ने इस आंदोलन और इसके नेताओं पर माओवादी का ठप्पा लगाने से परहेज नहीं किया, क्योंकि हर कीमत पर वे कॉरपोरेटों के हित साधने के लिए वे डटे रहे। यहां तक कि अपनी मांगों को लेकर राज्यपाल से मिलने आ रहे आदिवासियों के प्रतिनिधिमंडल को भी बीच रास्ते में गिरफ्तार किया गया।

पिछले साल अक्टूबर में ही कांग्रेस सरकार ने मूलवासी बचाओ मंच पर प्रतिबंध लगाया था। इस संबंध में जारी अधिसूचना में कहा गया था : “यह संगठन “माओवादी प्रभावित क्षेत्रों” में राज्य और केंद्र सरकार की पहलों का विरोध कर रहा है और सुरक्षा शिविरों की स्थापना का विरोध करके क्षेत्र में विकास परियोजनाओं में बाधा बन रहा है।” लेकिन इस संगठन के किसी आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने की बात नहीं कही गई थी। अब सवाल उठता है कि यदि कोई आदिवासी समुदाय राज्य और केंद्र की किसी पहल का विरोध कर रहा है, तो क्या यह उसका लोकतांत्रिक और संविधानप्रदत्त अधिकार नहीं है? कोई परियोजना विकास परियोजना है या नहीं, इसे सरकार तय करेगी या इसका फैसला पेसा अधिनियम के तहत स्थानीय आदिवासी समुदाय अपनी ग्राम सभाओं के जरिए करेगा? मूलवासी बचाओ मंच ठीक यही तो मांग कर रहा है कि पेसा अधिनियम के अंतर्गत प्राप्त शक्तियों का प्रयोग करने का अधिकार आदिवासियों को दिया जाय। यह मांग किस तरह नाजायज है, यह कांग्रेस और भाजपा को बताना होगा।

कांग्रेस आज सत्ता में नहीं है, लेकिन कॉर्पोरेटपरस्ती से उसका नाता अभी तक टूटा नहीं है। इस अवैध गिरफ्तारी के एक सप्ताह बाद भी वह इस मामले में चुप है। रघु मीडियामी की वकील शालिनी गेरा का कहना है कि बस्तर के जन आंदोलनों को कुचलने के लिए ही रघु की फर्जी केस में गिरफ्तारी की गई है, क्योंकि जिन प्रतिबंधित 2000 रूपये के नोटों को रखने और प्रतिबंधित माओवादी संगठनों को धन वितरित करने के आरोप में उसे गिरफ्तार किया गया है, संबंधित एफआईआर में भी उसका कोई जिक्र नहीं है। उल्लेखनीय है कि इसके पहले भी सरजू टेकाम और सुनीता पोटाई नामक मंच के दो कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया जा चुका है, जो बस्तर में संसाधनों की लूट के खिलाफ जारी आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे।

बस्तर के बाहर जो लोग लोकतंत्र और संविधान की बड़ी-बड़ी डींगें हांकते हैं, उन सबके लिए बस्तर चुनौती है कि यहां आएं और माओवाद के नाम पर आदिवासियों की आवाज को हमेशा के लिए बंद करने का जो राज्य प्रायोजित अभियान पिछले 20-25 सालों से चल रहा है, उसके खिलाफ आवाज उठाएं।

(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)

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