Saturday, September 13, 2025
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अमित शाह का बयान: गंभीर आरोपों में पकड़े जाने पर पीएम-सीएम समेत नेता हटेंगे, 30 दिन में ज़मानत न मिली तो पद स्वतः रिक्त

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में पेश किए जा रहे एक विधेयक और उससे जुड़े संवैधानिक संशोधन पर विस्तृत टिप्पणी करते हुए कहा कि यदि किसी चुने हुए नेता के खिलाफ गंभीर आरोपों में गिरफ्तारी होती है और उसे 30 दिनों के भीतर जमानत नहीं मिलती, तो उसे अपने पद से हटना होगा — नहीं तो कानून के तहत उसे हटाया जाएगा। उन्होंने इस प्रावधान को लोकतंत्र में जवाबदेही और शासन की कार्यक्षमता बनाए रखने के प्रयास के रूप में पेश किया।

क्या है प्रस्तावित बदलाव?

सरकार ने संसद में Constitution (130th Amendment) Bill सहित तीन संबंधित विधेयक प्रस्तुत किए हैं, जिनमें प्रावधान है कि गंभीर आपराधिक मामलों (जिन पर कम से कम पाँच साल की सजा का प्रावधान है) में किसी मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री की निरंतर हिरासत 30 दिन से अधिक हो जाने पर उनका पद अव्यवस्थित ढंग से खाली माना जाएगा। इस संशोधन को पहले संयुक्त संसदीय समिति (JPC) को भेजा जाने का प्रावधान भी रखा गया है ताकि विधेयक पर व्यापक बौद्धिक और संवैधानिक विचार-विमर्श हो सके।

पीएम-सीएम का समावेश — कौन-सा निर्णय किसने लिया?

अमित शाह ने स्पष्ट किया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं यह आग्रह किया है कि संशोधन में प्रधानमंत्री का नाम भी शामिल किया जाए — यानी यदि कोई प्रधानमंत्री किसी गंभीर मामले में जेल जाता और 30 दिनों में जमानत नहीं पाता तो उसे भी पद छोड़ना होगा। शाह ने इसे सत्ता की जवाबदेही का उदाहरण बताते हुए कहा कि नियम सभी के लिए एक समान होंगे — सत्तापक्ष या विपक्ष पर अलग नियम लागू नहीं होंगे।

विपक्ष की आपत्तियाँ और संसद में बहस का मुद्दा

विपक्ष ने विधेयक को लेकर तीखी आपत्तियाँ जताई हैं और सवाल उठाए हैं कि इस तरह के संवैधानिक संशोधन को बिना व्यापक बहस व चर्चा के सदन में रखना क्यों उचित है। विपक्ष का कहना है कि 30 दिन में किसी को पद से हटाना दंडात्मक हो सकता है और राजनीतिक विरूपता के लिए आसान हथियार बन सकता है; उन्होंने सत्येंद्र जैन जैसे मामलों का हवाला दे कर कहा कि लंबी कानूनी प्रक्रियाओं और जांचों के दौरान लोग लंबे समय तक जेल में भी रह सकते हैं, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को असंतुलित किया जा सकता है। अमित शाह ने विपक्ष की इन आपत्तियों को खारिज किया और कहा कि संसद बहस का मंच है, न कि विधेयक पेश न होने देने का।

सरकार का तर्क — क्यों 30 दिन?

सरकार की दलील यह है कि 30 दिन की अवधि न्यायिक प्रक्रिया के लिए ‘पर्याप्त और व्यावहारिक’ समय है ताकि किसी पर लगे आरोपों की नीयत और गंभीरता का पहला स्थायी आकलन हो सके; साथ ही, यदि मामले झूठे हैं तो उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट का मार्ग खुला है और वे आवश्यक न्यायिक ऑर्डर दे सकते हैं। अमित शाह ने कहा कि यदि कोई सचमुच निर्दोष है तो अदालतें उसे जल्द ही जमानत दे देंगी; अन्यथा लोकतंत्र की गरिमा और शासन-प्रक्रिया पर असर पड़ता है यदि कोई पांच साल से अधिक दंडवाली घटनाओं में बंद नेता पद पर बने रहे और सरकार चला रहा हो।

विरोधियों की चिंता — राजनीतिक शिकार और संघीयता पर असर

विपक्ष का तर्क है कि यह प्रावधान राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को निशाना बनाने के लिए दुरुपयोग हो सकता है — केंद्रीय एजेंसियों के दायरे और गिरफ्तारियों के विवादित प्रयोग का हवाला देते हुए कहा गया कि बिना दोषसिद्धि के पद से हटाने का नियम असंवैधानिक और संघीय ढांचे के लिए खतरनाक हो सकता है। आलोचक यह भी कहते हैं कि संवैधानिक संशोधन के ऐसे कदम से न्यायिक प्रक्रिया और राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के बीच संतुलन बिगड़ सकता है।

प्रक्रियात्मक कदम और आगे की राह

अमित शाह ने कहा कि यह संवैधानिक संशोधन संसद की दोनों सदनों में आवश्यक दो-तिहाई बहुमत से पारित होना होगा; सरकार ने विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजने का प्रावधान रखा है ताकि विशेषज्ञता और गहन चर्चा के बाद अंतिम रूप दिया जाए। वहीं संसद में विपक्ष द्वारा किए गए हंगामे और विधेयक के प्रतिपादन को रोकने की रणनीति पर भी गृह मंत्री ने नाराज़गी जताई और कहा कि लोकतंत्र में विवाद और बहस का अधिकार है पर विधेयक को मंज़ूरी तक पहुंचने से रोकना उचित नहीं।

कानूनी चुनौतियाँ संभावित

कानून बनते ही इसका सामना हाई-कोर्ट/सुप्रीम कोर्ट में होने की संभावना है — विशेषकर यदि किसी मामले में गिरफ्तारी और 30 दिन की निरंतर हिरासत के आधार पर पद स्वतः रिक्त माना गया और बाद में उच्च न्यायालय में जमानत या रिहाई मिलती है। न्यायपालिका के हस्तक्षेप के मामलों का हवाला देते हुए भी दोनों पक्ष तर्क देंगे — सरकार जवाबदेही और भ्रष्टाचार रोकने की बात करेगी, जबकि विपक्ष संवैधानिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों के संरक्षण की बात उठाएगा।


अमित शाह के बयानों और सरकार द्वारा पेश किए गए 130वें संशोधन के मसौदे ने एक संवेदनशील नैरेटिव को जन्म दिया है — एक ओर जवाबदेही व सख्ती की मांग, दूसरी ओर संवैधानिक सुरक्षा व दुरुपयोग के जोखिम। अगले कुछ हफ्तों में संसदीय विचार-विमर्श, JPC की रिपोर्ट और संभावित न्यायिक चुनौतियाँ ही तय करेंगी कि यह प्रस्ताव किस रूप में लागू होता है।


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VIKAS TRIPATHI
VIKAS TRIPATHIhttp://www.pardaphaas.com
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