
आज जब कुछ राजनेता और उनके समर्थक लगातार उद्योगपतियों को “पूंजीपतियों के दलाल”, “अडानी-अंबानी के भक्त” जैसे जुमलों से जनता को भ्रमित करने की कोशिश करते हैं, तो यह आवश्यक हो जाता है कि हम इतिहास की धूल झाड़कर देखें कि असली टैक्स चोरी किसने की, और कब?
क्या आप जानते हैं कि 1966 से लेकर 1998 तक भारत में राजनीतिक दलों की आय पर कोई टैक्स नहीं लगता था? जी हाँ, लगभग 32 वर्षों तक राजनीतिक दलों को मिले चंदे, उनकी संपत्ति, और अन्य आय के स्रोतों पर पूरा टैक्स माफ था। इसे सरकार की नीतिगत सुविधा कहें या सत्ता की मिलीभगत – लेकिन सच्चाई यही है कि इस अवधि में सत्ता पक्ष और मुख्यधारा की पार्टियों को खुलकर टैक्स चोरी करने की छूट मिली हुई थी।
- टैक्स नियमों में ‘विशेष छूट’ – किसके लिए और क्यों?
1960 और 70 के दशक में जब देश आर्थिक संकट से गुजर रहा था, तब भी एक वर्ग ऐसा था जो बिना किसी जवाबदेही के टैक्स से मुक्त था – और वो थे राजनीतिक दल।
1979 में चुनाव आयोग के सामने जब राजनीतिक चंदे और आय का मुद्दा उठा, तब यह पहली बार सामने आया कि राजनीतिक पार्टियां अपना हिसाब-किताब न तो सार्वजनिक करती हैं, न टैक्स देती हैं।
1985 में वित्त मंत्री द्वारा घोषित किया गया कि राजनीतिक दलों को आयकर से पूरी तरह छूट दी गई है। इसका मतलब? अरबों रुपये का बेहिसाब पैसा आया और गया – बिना कोई सवाल पूछे, बिना कोई ऑडिट, और बिना कोई कानूनी जिम्मेदारी।
- कांग्रेस और ‘परिवार विशेष’ की भूमिका
जिस पार्टी ने सबसे अधिक समय देश पर शासन किया, उसने ही इस टैक्स छूट का सबसे अधिक लाभ उठाया।
नेहरू-गांधी परिवार की अगुवाई में चल रही कांग्रेस पार्टी ने दशकों तक इस छूट को बनाये रखा, और इससे जो ‘अघोषित’ पूंजी जमा हुई, वह पार्टी और इसके नेताओं की निजी सत्ता का आधार बन गई।
यह वही काल था जब देश में लाइसेंस राज था, जब कारोबारियों को हर छोटे-बड़े फैसले के लिए नेताओं के पास हाथ जोड़कर खड़ा होना पड़ता था।
नतीजा? जनता महंगाई और बेरोज़गारी से जूझती रही, और नेताओं की संपत्ति दिन-ब-दिन बढ़ती रही – बिना टैक्स दिये!
- ‘अडानी-अंबानी’ का नाम लेने वालों को आईना
आज जिन लोग अंबानी और अडानी का नाम लेकर सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें पहले ये जवाब देना होगा:
• 1966 से 1998 तक जब आपकी पार्टी सत्ता में थी, आपने राजनीतिक चंदे और संपत्ति पर टैक्स क्यों नहीं लगाया?
• आपने क्यों टैक्स सिस्टम को ऐसा बनाया, जो आम आदमी के लिए सख्त था लेकिन नेताओं के लिए पूरी तरह लचीला?
• क्या ये सीधा-सीधा दोहरा मापदंड नहीं था?
- टैक्स नीति और नैतिकता का पतन
इस दौर में कर नैतिकता (Tax Morality) की धारणा ही खत्म हो गई थी। जब जनता देखती है कि नेताओं को टैक्स से छूट है, लेकिन आम नागरिक को सख्ती से टैक्स भरना पड़ता है – तो उसका विश्वास सिस्टम से उठ जाता है।
यह वही दौर था जब कालाधन, हवाला कांड, और बोफोर्स घोटाले जैसे शब्द आम भारतीय की जुबान पर चढ़ चुके थे।
- 1998 के बाद का परिवर्तन
1998 में जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार आई, तब टैक्स व्यवस्था में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने की दिशा में कदम उठाए गए। धीरे-धीरे राजनीतिक दलों की आय और चंदे को सार्वजनिक करने की दिशा में काम शुरू हुआ।
बाद में आयकर कानून में संशोधन कर के यह व्यवस्था लाई गई कि राजनीतिक दलों को अब चुनाव आयोग को नियमित रूप से अपनी आय और खर्च का ब्यौरा देना होगा।
टैक्स चोरी किसने की – जवाब अब इतिहास दे रहा है।
जो दल आज उद्योगपतियों को कोस रहे हैं, वो खुद दशकों तक टैक्स से मुक्त रहकर सत्ता का दुरुपयोग करते रहे।
आज जब भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बन रहा है, जब उद्योगपति टैक्स दे रहे हैं, रोजगार दे रहे हैं और देश को आगे ले जा रहे हैं — तब यह सवाल पूछना जरूरी है कि वो 32 साल कौन सा ‘सोनाली युग’ था, जब सत्ता को टैक्स देने की भी जरूरत नहीं थी?
अब जनता को फैसला करना है – वो टैक्स देने वालों के साथ खड़ी होगी, या टैक्स चुराने वालों की विरासत के पीछे?
“सच्चा राष्ट्रभक्त वह है, जो राष्ट्र के संसाधनों का उपयोग ईमानदारी से करे – चाहे वह आम नागरिक हो या प्रधानमंत्री!”