जम्मू-कश्मीर में हाल ही में हुए घटनाक्रम में, नेशनल कॉन्फ्रेंस (NC) के चार और एक निर्दलीय विधायक ने कैबिनेट मंत्री पद की शपथ ली, लेकिन कांग्रेस, जो NC के साथ चुनावी गठबंधन में थी, को कैबिनेट में शामिल नहीं किया गया।
ओमर अब्दुल्ला ने दूसरी बार जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। उनके साथ सुरिंदर सिंह चौधरी को उपमुख्यमंत्री बनाया गया, जो विधानसभा चुनावों में भाजपा के जम्मू-कश्मीर अध्यक्ष रविंदर रैना को हराकर उभरे थे। चौधरी की नियुक्ति से जम्मू क्षेत्र को कैबिनेट में प्रतिनिधित्व मिला है, जिससे सरकार में क्षेत्रीय संतुलन की कोशिश स्पष्ट होती है।
निर्दलीय उम्मीदवार का कैबिनेट में प्रवेश: कांग्रेस को झटका
इस नई कैबिनेट में सतिश शर्मा, जिन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा देकर निर्दलीय चुनाव लड़ा और चंब सीट से भाजपा उम्मीदवार को हराया, शामिल किए गए। सतिश शर्मा, पूर्व कांग्रेस मंत्री मदन लाल शर्मा के पुत्र हैं, और उनका कैबिनेट में स्थान पाना कांग्रेस के लिए एक और बड़ा झटका है। इससे यह स्पष्ट होता है कि कांग्रेस की अपनी पार्टी के भीतर उथल-पुथल और असंतोष की स्थिति हो सकती है।
कांग्रेस की नाराजगी: राज्य का दर्जा और कैबिनेट से दूरी
हालांकि कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने विधानसभा चुनाव मिलकर लड़ा था, कांग्रेस को कैबिनेट में जगह नहीं मिली। कांग्रेस की नाराजगी का एक प्रमुख कारण यह है कि जम्मू-कश्मीर को अभी तक राज्य का दर्जा नहीं मिला है। कांग्रेस जम्मू-कश्मीर को केंद्रशासित प्रदेश से फिर से राज्य बनाने की मांग लगातार कर रही है, जो प्रधानमंत्री द्वारा कई सार्वजनिक मंचों पर किए गए वादों में से एक है।
जम्मू-कश्मीर कांग्रेस अध्यक्ष तारिक हमीद कर्रा ने बयान में कहा, “राज्य का दर्जा न मिलने से कांग्रेस असंतुष्ट है, इसलिए हम इस समय मंत्रालय में शामिल नहीं हो रहे हैं।”
राजनीतिक विश्लेषण और आगे की राह
यह घटनाक्रम जम्मू-कश्मीर की राजनीति में गहरे प्रभाव डाल सकता है। कांग्रेस की अनुपस्थिति सरकार में सत्ता संतुलन और गठबंधन की नीतियों पर सवाल उठाती है। साथ ही, नेशनल कॉन्फ्रेंस और निर्दलीय विधायकों की प्रमुखता से यह भी स्पष्ट होता है कि जम्मू-कश्मीर की राजनीति में गठबंधन के बावजूद व्यक्तिगत दावेदारी और क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व पर जोर बढ़ रहा है।
आने वाले समय में, राज्य का दर्जा वापस पाने के लिए कांग्रेस द्वारा उठाए गए कदम और उनका जनाधार इस राजनीतिक गाथा का निर्णायक अध्याय हो सकते हैं।
VIKAS TRIPATHI
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