क्या एक ईमानदार न्यायाधीश के खिलाफ प्रतिशोध की पटकथा रची गई है?
दिल्ली के साकेत कोर्ट के न्यायाधीश कार्तिक टपारिया पर लगाए गए आरोप अब सिर्फ व्यक्तिगत दुर्व्यवहार तक सीमित नहीं रह गए हैं। यह मामला एक उभरते हुए न्यायिक अधिकारी के खिलाफ सुनियोजित साजिश की शक्ल ले रहा है। दिल्ली पुलिस के SHO पंकज कुमार की शिकायत पर हुई हाई कोर्ट की कार्रवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट के युवा अधिवक्ता पुरुषोत्तम कौशिक ने पूरे घटनाक्रम पर गंभीर सवाल उठाए हैं।
🧾 एक डायरी से हिल गई न्यायपालिका!
हजरत निजामुद्दीन थाने के SHO पंकज कुमार ने आरोप लगाया कि जज कार्तिक टपारिया ने उन्हें और अन्य पुलिसकर्मियों को निजी कामों में लगाया — जैसे राजस्थान में शादी के दौरान ड्यूटी कराना, 25,000 रुपये की जिम मेंबरशिप दिलवाना, क्रिकेट किट खरीदवाना, आदि। लेकिन यह घटनाएं पिछले एक साल से चल रही थीं। फिर अचानक अब शिकायत क्यों?
अधिवक्ता पुरुषोत्तम कौशिक ने उठाए ये तीखे सवाल:
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यदि जज द्वारा अनुचित कार्य कराए जा रहे थे, तो SHO ने एक साल तक उन्हें चुपचाप क्यों निभाया?
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क्या इन ‘सेवाओं’ के बदले SHO को किसी केस में नरमी या न्यायिक फेवर मिल रहे थे?
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25,000 रुपये की जिम मेंबरशिप जैसे निजी खर्च SHO ने क्यों उठाए — सिर्फ डर में या किसी सौदे के तहत?
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SHO द्वारा दर्ज की गई ड्यूटी डायरी के अलावा क्या कोई स्वतंत्र साक्ष्य या गवाह मौजूद हैं?
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क्या यह डायरी एक रणनीतिक दस्तावेज है — ताकि न्यायाधीश द्वारा शुरू की गई किसी कानूनी कार्रवाई से बचा जा सके?
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क्या यह पूरा घटनाक्रम एक कड़क, ईमानदार और होनहार न्यायिक अधिकारी को बदनाम करने की गहरी साजिश का हिस्सा है?
क्या दिल्ली हाई कोर्ट ने जल्दबाजी में किया फैसला?
दिल्ली हाई कोर्ट ने SHO की शिकायत पर संज्ञान लेते हुए 15 जुलाई को आदेश पारित किया और न्यायाधीश कार्तिक टपारिया को साकेत कोर्ट से हटा दिया।
पुरुषोत्तम कौशिक का कहना है कि:
“केवल एकपक्षीय डायरी एंट्री के आधार पर एक न्यायाधीश के खिलाफ यह कार्रवाई करना न्याय प्रक्रिया की मूल आत्मा के खिलाफ है। पहले निष्पक्ष जांच होनी चाहिए थी।”
सच्चाई जानने की जरूरत
क्या SHO और जज के बीच कोई पुराना टकराव था?
क्या यह केस न्यायपालिका की गरिमा के खिलाफ एक बड़ी अंदरूनी साजिश है?
या वास्तव में न्यायाधीश ने अपनी मर्यादा का उल्लंघन किया था?
इन सवालों का जवाब सिर्फ निष्पक्ष, स्वतंत्र और पारदर्शी जांच ही दे सकती है। जब तक सच सामने न आ जाए, तब तक किसी एक पक्ष को दोषी ठहराना न्याय नहीं, राजनीति होगी।
अब वक्त है कुछ गंभीर सवाल पूछने का:
क्या सिर्फ SHO की डायरी एंट्री पर किसी न्यायाधीश को हटाया जाना उचित है?
क्या SHO को सेवाओं के बदले न्यायिक फेवर मिल रहे थे?
क्या यह मामला साज़िश और प्रतिशोध का नतीजा है?
क्या हम एक काबिल न्यायिक अधिकारी को बिना सुनवाई के कुर्बान कर रहे हैं?