
गाजीपुर के दुल्लहपुर क्षेत्र के एक सरकारी विद्यालय में हाल ही में घटी एक घटना ने शिक्षा व्यवस्था, राजनीतिक ज़िम्मेदारी और समाज की सोच — तीनों पर तीखे सवाल खड़े कर दिए हैं। मामला विद्यालय के डिजिटल बोर्ड पर ‘शिक्षा का मंदिर’ की जगह ‘शीक्षा का मंदीर’ लिखे जाने का है। यह गलती न किसी छात्र की थी, न शिक्षक की, बल्कि जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के पुत्र एवं बीजेपी नेता अभिनव सिन्हा द्वारा की गई।
जिस समय यह गलती हुई, उस वक्त मंच पर पूर्व लोकसभा प्रत्याशी पारस नाथ राय भी उपस्थित थे, जो स्वयं को “चाणक्य का शिष्य” कहते हैं। हैरानी की बात यह रही कि न केवल इस गलती को रोका नहीं गया, बल्कि उसी आधार पर छात्रों को उपदेश भी दिए गए।
अब सवाल यह है कि क्या यह एक अनजानी चूक थी, या जानबूझकर किया गया कदम?
आज के दौर में जब राणा सांगा और औरंगज़ेब तक को राजनीतिक भाषणों में खींच लाया जाता है — कभी वीरता के प्रतीक बनाकर, तो कभी इतिहास की गलतियों के बहाने — तब एक छोटे से शब्द की “भूल” भी ट्रेंडिंग टॉपिक बन सकती है। सोशल मीडिया पर उठ रहे स्वर कह रहे हैं कि “निगेटिव पब्लिसिटी” ही अब नई पहचान की सीढ़ी बन चुकी है। जब आप राणा सांगा को मुगलों से मिला देते हैं या औरंगज़ेब को विकास का प्रतीक बता देते हैं, तो “शीक्षा का मंदीर” कह देना कौन-सी बड़ी बात है?
दुल्लहपुर का संदर्भ:
यह इलाका पहले नकल और शिक्षा में अनियमितता के लिए बदनाम था। हाल के वर्षों में डिजिटल शिक्षा और गुणवत्ता सुधार की कोशिशें की जा रही थीं। ऐसे में जब मंच से खुद नेताओं द्वारा भाषा की ऐसी लापरवाहियाँ हो रही हैं, वह भी कैमरों के सामने, तो सवाल उठते हैं — क्या यह “मानवीय भूल” थी या “पब्लिसिटी स्टंट”?
जनता की प्रतिक्रिया:
गाँव-कस्बों से लेकर ट्विटर तक लोग कह रहे हैं – “अब तो राजनीति में चर्चा में रहने के लिए या तो इतिहास तोड़ो या व्याकरण!”
एक यूज़र ने लिखा – “जिस मंदिर में अक्षर पूजे जाते हैं, वहीं शब्दों की हत्या हो रही है — और वह भी तालियों के बीच।”
भूल किसी से भी हो सकती है, पर जब उस भूल पर शर्म नहीं, बल्कि भाषण दिए जाएँ — तो वह भूल नहीं, सोच बन जाती है।
और अगर यह सोच ही अब पब्लिसिटी का नया ट्रेंड है, तो फिर ‘शिक्षा का मंदिर’ ही नहीं, समाज का आत्म-मंथन भी ज़रूरी हो जाता है।

VIKAS TRIPATHI
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