नई दिल्ली — लिंग-निर्धारण निषेध (PCPNDT) अधिनियम और उसके नियमों के प्रभावी कार्यान्वयन को लेकर दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को राज्य सरकारों को चार सप्ताह के भीतर जवाब दाखिल करने का आदेश दिया। जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने नोट किया कि अधिकांश राज्यों ने हलफनामा दाखिल कर दिया है, लेकिन लगभग पाँच राज्य अभी तक अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने में चूक गए हैं। मामला आगे की सुनवाई के लिए 10 अक्टूबर तक स्थगित कर दिया गया है।
अदालत ने स्पष्ट स्वर में मांगा जवाब, चूक पर दी चेतावनी
पीठ ने कहा कि गत वर्ष सितंबर में राज्यों को चार सप्ताह का समय देकर इन मामलों के मुकदमों, अपीलों और पुनरीक्षण याचिकाओं का ब्यौरा मांगा गया था, जिसमें संबंधित अपीलीय अदालतों में दर्ज अपीलों का विवरण शामिल होना चाहिए था। अदालत ने पूछा कि क्या उन राज्यों ने निर्देशानुसार जवाब दिया है — सुनवाई के दौरान यह सामने आया कि कुछ राज्य अभी भी जवाब दाखिल नहीं कर पाए हैं।
सीनियर वकील संजय पारिख, जो याचिकाकर्ता के पक्ष में पेश हुए, ने बताया कि कुछ राज्यों ने हलफनामे दाखिल कर दिए हैं पर करीब पाँच राज्यों की रिपोर्ट लंबित है। पारिख ने यह भी कहा कि ऐसे मामलों में कई अभियुक्त बरी कर दिए गए हैं पर उनके खिलाफ कोई अपील नहीं दाखिल की गई, जिससे दोषसिद्धि दर घटती जा रही है।
अदालती रुख कड़ा रहा — पीठ ने कहा कि अधिकारियों ने कई मामलों में मुकदमा ठीक से नहीं चलाया, जिसके कारण आरोपी बरी हुए। अदालत ने चेतावनी दी: “हम अभी जुर्माना नहीं लगा रहे हैं, लेकिन अगली बार हम जुर्माना लगा सकते हैं।”
मामले का तात्कालिक स्वरूप और निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने आज राज्यों को चार सप्ताह का समय दिया और मामले की सुनवाई 10 अक्टूबर के लिए टाल दी। कोर्ट ने वरिष्ठ वकील संजय पारिख को अमाइकस क्यूरी (amicus curiae) के रूप में नामित भी किया है ताकि यथासंभव साक्ष्य व दखल के रास्ते सुनिश्चित किए जा सकें।
कोर्ट ने पिछले साल दिए निर्देशों के अनुरूप कहा था कि राज्यों द्वारा प्रस्तुत आँकड़े 1 मई 2015 से अब तक के होने चाहिए। जुलाई 2023 में दायर याचिका पर अदालत ने याचिकाकर्ता शोभा गुप्ता से जुड़े मामलों में कई राज्यों से विस्तृत जवाब तलब किए थे। याचिका में आरोप है कि पीसीपीएनडीटी अधिनियम और उसके नियमों का अक्षरशः और प्रभावी अनुपालन नहीं हो रहा है, जिससे लिंग-निर्धारण समेत संबंधित अपराधों पर नियंत्रण कमजोर पड़ा है।
याचिका की प्रमुख माँगें
याचिका में सरकारों से यह निर्देश देने का आग्रह है कि:
पीसीपीएनडीटी अधिनियम की धारा-25 के तहत अपराधियों के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई तेज की जाए;
प्रत्येक बरी करने के आदेश के खिलाफ उपयुक्त अपील/रीव्यू दायर किए जाएँ ताकि दोषसिद्धि सुनिश्चित हो सके;
राज्यों के रिकॉर्ड में मामलों की संख्या, अपीलें और निर्णयों का विस्तृत ब्यौरा कोर्ट के समक्ष रखा जाए।
याचिका का तर्क है कि विभिन्न राज्यों के आँकड़े प्रदर्शित करते हैं कि दोषसिद्धि दर बहुत कम है और कानून का प्रभावी पालन न होने के कारण अजन्मे बच्चों के लिंग-आधारित चयन पर लगाम नहीं लग पा रही।
नतीजा — कड़ा संदेह और जवाब की प्रतीक्षा
सुप्रीम कोर्ट की सख्ती और राज्यों को दी गई अंतिम समय-सीमा से स्पष्ट है कि शीर्ष अदालत इस मुद्दे को गंभीरता से ले रही है। अब राज्य स्तर पर दाखिल किए गए हलफनामों से यह उजागर होगा कि क्यों दोषसिद्धि कम रही और किन प्रशासनिक या कानूनी कारणों से अपीलें दर्ज नहीं की गईं। अगली सुनवाई पर—10 अक्टूबर—इन हलफनामों और अमाइकस क्यूरी की रिपोर्ट के आधार पर अदालत आगे की कार्यवाही निर्धारित करेगी।














