न्याय के मंदिर में मर्यादा की लक्ष्मण रेखा लांघने की कोशिश अक्सर वकीलों से हो जाती है, पर जब बात देश की सबसे बड़ी अदालत – सुप्रीम कोर्ट – की हो, तो एक-एक शब्द तौल कर बोलना पड़ता है। सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में कुछ ऐसा ही हुआ, जब एक वकील, माननीय इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा को उनके पद और गरिमा को किनारे रखकर सीधे ‘वर्मा’ कहकर पुकार बैठे।
“वर्मा” हैं या “जस्टिस वर्मा” – फर्क समझिए वकील साहब!
एडवोकेट मैथ्यूज नेदुम्परा, जिन्हें अदालतों में याचिका दायर करने का विशेष शौक है और शालीनता की परिभाषा से थोड़े फासले पर खड़े नजर आते हैं, ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की। याचिका में मांग की गई थी कि जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की जाए – नकदी बरामदगी के मामले में। लेकिन इस गंभीर मुद्दे से पहले, अदालत की गरिमा पर ही चोट कर बैठे साहब।
मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई ने जैसे ही वकील साहब की “वर्मा” वाली बोली सुनी, तुरंत कटघरे में खड़े कर दिया और तल्ख़ अंदाज़ में कहा –
“क्या वह आपके दोस्त हैं? वह अब भी जस्टिस वर्मा हैं। आप उन्हें कैसे संबोधित कर रहे हैं? थोड़ी शालीनता बरतिए। आप एक विद्वान जज की बात कर रहे हैं।”
‘सुप्रीम’ धैर्य बनाम ‘विलक्षण’ आग्रह
नेदुम्परा महोदय पर यह चेतावनी ज्यादा असर करती, अगर वह वकील कम और लोकतंत्र के स्वघोषित मसीहा ज्यादा न होते। वे मामले को तत्काल सूचीबद्ध कराने पर अड़ गए – ठीक वैसे जैसे कोई रेल यात्री टिकट लेकर सीट मांगने पर अड़ जाए कि भले ही ट्रेन में भीड़ हो, उन्हें खिड़की वाली चाहिए।
उन्होंने तर्क दिया कि “मुझे नहीं लगता कि यह प्रतिष्ठा उन पर लागू होती है” – यानी अब जज की प्रतिष्ठा तय करने का काम भी याचिकाकर्ता का हो गया! इस पर जब सीजेआई ने सख्ती से कहा – “कृपया अदालत को निर्देश न दें,” तो जवाब आया – “मैं तो बस आग्रह कर रहा हूं।”
यह वैसा ही आग्रह था जैसा कोई बच्चा स्कूल में टीचर से कहे, “प्लीज मुझे ही मॉनिटर बना दीजिए, शर्मा जी तो बहुत गुस्से वाले हैं!”
नकदी, आग और आंतरिक जांच – एक न्यायिक थ्रिलर
अब आते हैं असली मुद्दे पर – नकदी, स्टोर रूम और आग!
14 मार्च की रात 11:35 बजे अचानक दिल्ली हाई कोर्ट के तत्कालीन जज जस्टिस वर्मा के सरकारी आवास पर आग लग जाती है। और जब राख ठंडी होती है तो उसमें से लाखों की जली-अधजली नकदी निकलती है। और फिर शुरू होता है एक ऐसा जांच नाटक जो किसी ओटीटी सीरीज़ से कम नहीं।
शीर्षक होता है – “आग की राख में छिपे नोट – न्याय की गर्मी कितनी होगी?”
तीन सदस्यीय समिति – जिसमें पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश शील नागू प्रमुख थे – दस दिनों तक 55 गवाहों से पूछताछ करती है। समिति की रिपोर्ट कहती है कि उस स्टोररूम पर जस्टिस वर्मा और उनके परिवार का सीधा या परोक्ष नियंत्रण था। यानी जस्टिस साहब ‘फैसले’ ही नहीं, ‘फिजिकल लोकेशन’ पर भी प्रभाव रखते थे।
महाभियोग की सिफारिश – संसद की अदालत में अगला पड़ाव
रिपोर्ट को गंभीरता से लेते हुए तत्कालीन सीजेआई संजीव खन्ना ने प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को पत्र लिखकर वर्मा के खिलाफ महाभियोग की सिफारिश कर दी। यानी अब अदालत का न्याय संसद की चौखट पर खड़ा है – जहां बहसें होती हैं, लेकिन फैसले राजनीतिक वजन से होते हैं।
सरकार मानसून सत्र में प्रस्ताव लाने की योजना में है। लेकिन इस बीच वर्मा साहब भी सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचे और जांच समिति की रिपोर्ट को ‘न्याय के खिलाफ’ बता दिया। यानी जो आग उनके घर में लगी थी, अब वो दस्तावेजों में जलती दिख रही है।
व्यंग्य का पंच – ‘मर्यादा पुरुषोत्तम न्याय’ की तलाश
अगर कोई वकील सोचता है कि ‘संविधान की किताब हाथ में लेकर’ अदालत में सबकुछ कह सकता है, तो उसे याद रखना चाहिए – संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, पर ‘अविवेकी स्वतंत्रता’ का लाइसेंस नहीं।
‘जस्टिस वर्मा’ को ‘वर्मा’ कह देना उसी तरह है, जैसे किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर को ‘ओए शर्मा!’ कहकर बुला लिया जाए।
और अगर कोई न्यायाधीश सोचता है कि उसके घर से जली हुई नकदी बरामद हो जाए, और वो ‘कर्मों’ को ‘कुर्सी’ से ढक लेगा, तो यह याद दिलाना जरूरी है कि न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी होती है – पर नाक, कान और विवेक खुले होते हैं।
‘वर्मा’ को ‘जस्टिस वर्मा’ न कहना एक अदालती मर्यादा का उल्लंघन है, पर न्याय की ‘गंभीरता’ को राख और जली हुई करेंसी से ढंकने की कोशिश उससे भी बड़ा अपराध है।
एक ओर सुप्रीम कोर्ट मर्यादा सिखा रहा है, दूसरी ओर संसद में नैतिकता की परीक्षा होने जा रही है।
और वकील साहब?
उनके लिए यही कहेंगे –
“याचिका तो बहुत दायर कर ली, अब थोड़ी याचक जैसी भाषा भी सीख लीजिए!”