
RSS sarsanghchalak Mohan Bhagwat vision for Vishwaguru: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने पुणे में ‘सहजीवन व्याख्यानमाला’ के 23वें समारोह में अपने उद्बोधन में भारत को ‘विश्वगुरु’ बनाने के दृष्टिकोण को स्पष्ट किया। उन्होंने 12 जनवरी 2025 को स्वामी विवेकानंद की 162वीं जयंती के अवसर पर उनके राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत विचारों को याद करते हुए भारत के वैश्विक भूमिका को रेखांकित किया।
भारत का विशिष्ट दृष्टिकोण
डॉ. भागवत ने कहा कि भारत का सांस्कृतिक दृष्टिकोण पश्चिम से बिल्कुल अलग है। उन्होंने पश्चिमी देशों की विकास प्रक्रिया की आलोचना करते हुए कहा कि वे केवल ताकत और व्यक्तिगत हितों पर केंद्रित हैं। इसके विपरीत, भारतीय संस्कृति सह-अस्तित्व और समावेशिता की भावना को महत्व देती है। उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत की परंपराएं न केवल आर्थिक और भौतिक उन्नति पर बल्कि आध्यात्मिक उत्थान पर भी आधारित हैं।
हिंदू राष्ट्र और समावेशी समाज
उन्होंने भारत को हिंदू राष्ट्र बताते हुए इसकी विशेषता को ‘सर्वसमावेशी समाज’ के रूप में परिभाषित किया। उनके अनुसार, हिंदू राष्ट्र का अर्थ अन्य धर्मों या संप्रदायों के प्रति असहिष्णुता नहीं है, बल्कि उनकी मान्यताओं को अपनाने और सम्मान देने की परंपरा है। उन्होंने जबरन धर्मांतरण और धार्मिक कट्टरता को भारतीय जीवन शैली के विरुद्ध बताया।
अतीत से सीख और वर्तमान की चुनौतियां
इतिहास का उल्लेख करते हुए भागवत ने भारत के विभाजन और विदेशी आक्रमणों को राष्ट्रीय एकता में बाधा बताया। उन्होंने कहा कि विभाजनकारी राजनीति और बाहरी विचारधाराओं ने भारत की आत्मा को क्षति पहुंचाई। उन्होंने भारत को अपनी सांस्कृतिक जड़ों की ओर लौटने और पश्चिमी मॉडलों की नकल से बचने की सलाह दी।
विश्वगुरु बनने की शर्तें
डॉ. भागवत ने कहा कि विश्वगुरु बनने के लिए भारत को अपने मूलभूत सिद्धांतों को पहचानना होगा। उन्होंने यह भी कहा कि केवल दर्शन देना पर्याप्त नहीं है; इसे जीवन में उतारना भी जरूरी है। जातिवाद और भेदभाव जैसी समस्याओं को समाप्त करने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता पर जोर दिया।
समाज में एकता का आह्वान
उन्होंने हिंदू समाज से संगठित और सशक्त होने का आग्रह किया। उनके अनुसार, भारत के समक्ष आने वाली चुनौतियों का समाधान एकता और सामूहिक प्रयासों के माध्यम से ही संभव है।
भारत का मार्गदर्शन वैश्विक चुनौतियों का समाधान
अपने संबोधन के अंत में, भागवत ने भारत को विश्व के सामने एक मॉडल के रूप में प्रस्तुत करने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि भारत को अपनी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत को बनाए रखते हुए वैश्विक समस्याओं जैसे पर्यावरण, असमानता और कट्टरता का समाधान प्रस्तुत करना चाहिए।
डॉ. मोहन भागवत का यह भाषण न केवल भारत की आंतरिक एकता और पहचान को मजबूत करने का प्रयास था, बल्कि भारत की वैश्विक भूमिका को पुनर्परिभाषित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण संदेश भी था।