
Constitution Amendments during Emergency: भारत, जो 1947 में आजाद हुआ और धीरे-धीरे लोकतंत्र की नींव पर आगे बढ़ रहा था, 25 जून 1975 को एक ऐसा दिन आया जिसने देश के इतिहास में काला अध्याय जोड़ दिया। यह दिन था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी (आपातकाल) की घोषणा की। यह कदम न केवल कांग्रेस पार्टी के लिए बल्कि पूरे देश के लिए एक कलंक साबित हुआ। लोकतंत्र के स्तंभों को कमजोर कर दिया गया, लोगों से उनके अधिकार छीन लिए गए, प्रेस की स्वतंत्रता पर ताले जड़ दिए गए, और अदालतों के अधिकारों को सीमित कर दिया गया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में लोकसभा में संविधान और इमरजेंसी पर चर्चा करते हुए कांग्रेस पार्टी को कठघरे में खड़ा किया और इमरजेंसी के दौरान किए गए संविधान संशोधनों का उल्लेख किया। आइए विस्तार से जानते हैं, इमरजेंसी के दौरान कौन-कौन से संविधान संशोधन किए गए, और उनका देश पर क्या असर पड़ा।
38वां संशोधन (1975)
इमरजेंसी लगने के बाद पहला बड़ा बदलाव 38वें संविधान संशोधन के रूप में किया गया। इस संशोधन का उद्देश्य न्यायपालिका की शक्ति को सीमित करना था। इसके तहत अदालतों से यह अधिकार छीन लिया गया कि वे इमरजेंसी के फैसले की समीक्षा कर सकें। यह संशोधन यह सुनिश्चित करता था कि इमरजेंसी लागू होने के बाद उसके खिलाफ कोई कानूनी चुनौती न दी जा सके।
39वां संशोधन (1975)
38वें संशोधन के ठीक दो महीने बाद, इंदिरा गांधी सरकार ने 39वां संशोधन किया। यह संशोधन विशेष रूप से इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद पर बनाए रखने के लिए लाया गया था। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उनके चुनाव को अवैध घोषित कर दिया था, लेकिन इस संशोधन के जरिए अदालतों से प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के चुनाव की जांच करने का अधिकार छीन लिया गया। इसके स्थान पर यह व्यवस्था की गई कि प्रधानमंत्री के चुनाव की वैधता की जांच केवल संसद द्वारा गठित विशेष समिति ही कर सकती है।

42वां संशोधन (1976)
इमरजेंसी के दौरान किया गया 42वां संविधान संशोधन अब तक के सबसे विवादास्पद और व्यापक संशोधनों में से एक माना जाता है।
- मौलिक अधिकार बनाम नीति निर्देशक सिद्धांत: इस संशोधन के तहत नागरिकों के मौलिक अधिकारों की तुलना में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को अधिक प्राथमिकता दी गई।
- केंद्र सरकार की शक्ति: केंद्र सरकार को यह अधिकार दिया गया कि वह कानून व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर किसी भी राज्य में सैन्य या पुलिस बल भेज सके।
- न्यायपालिका पर अंकुश: न्यायपालिका की स्वतंत्रता को पूरी तरह से कमजोर कर दिया गया। उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के अधिकार सीमित कर दिए गए।
- संविधान की प्रस्तावना में बदलाव: संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े गए।
यह संशोधन इंदिरा गांधी के शासन को और मजबूत करने के लिए लाया गया था, लेकिन यह देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने का सबसे बड़ा प्रयास साबित हुआ।
इमरजेंसी के बाद: 44वां संशोधन (1978)
इमरजेंसी के बाद जब जनता पार्टी की सरकार सत्ता में आई, तो उसने संविधान में 44वें संशोधन के जरिए लोकतंत्र की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण बदलाव किए।
- आर्टिकल 352 में बदलाव: यह व्यवस्था की गई कि आपातकाल की घोषणा करने के लिए राष्ट्रपति को मंत्रिमंडल की लिखित सिफारिश की आवश्यकता होगी।
- संसद की मंजूरी: आपातकाल की घोषणा के बाद संसद के दोनों सदनों से एक महीने के भीतर इसकी मंजूरी लेना अनिवार्य होगा।
- मौलिक अधिकारों की सुरक्षा: नागरिकों के मौलिक अधिकारों की बहाली के लिए कदम उठाए गए।
- इमरजेंसी की अवधि सीमित: अब आपातकाल अधिकतम छह महीने तक लागू रह सकता है, जिसे संसद की मंजूरी से ही आगे बढ़ाया जा सकता है।

इमरजेंसी के प्रभाव और सबक
इमरजेंसी ने भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद को हिलाकर रख दिया।
- लोकतंत्र पर खतरा: मौलिक अधिकारों का हनन, प्रेस की स्वतंत्रता पर पाबंदी, और विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी ने देश में डर का माहौल पैदा कर दिया।
- संविधान में बदलाव: इमरजेंसी के दौरान किए गए संशोधनों ने संविधान को सत्ता का उपकरण बना दिया था।
- राजनीतिक परिणाम: इमरजेंसी के फैसले ने कांग्रेस की साख को बड़ा नुकसान पहुंचाया, और 1977 में जनता पार्टी को सत्ता में आने का मौका मिला।