नई दिल्ली — सर्वोच्च न्यायालय के मुखिया चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) बी.आर. गवैई ने खजुराहो के जावरी (Javari) मंदिर में भगवान विष्णु की क्षतिग्रस्त मूर्ति की पुनर्स्थापना से जुड़े एक मामले में दिये गये अपने बयान के सोशल मीडिया पर वायरल होने और विवाद छिड़ने के बाद स्पष्ट किया है कि “मैं सभी धर्मों का सम्मान करता हूँ” और उनके कथन को गलत तरीके से पेश किया जा रहा है।
मामला क्या था — याचिका और सुनवाई का सार
स्थानीय निवासी राकेश दलाल ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर जावरी मंदिर (छतरपुर, मध्यप्रदेश) में रखी सात फुट ऊँची भगवान विष्णु की क्षतिग्रस्त/टूटी हुई मूर्ति को बदलकर उसकी प्राण-प्रतिष्ठा करने की मांग की थी। जावरी मंदिर खजुराहो के यूनेस्को विश्व धरोहर परिसर में आता है और इस तरह के परिवर्तन पारंपरिक तौर पर पुरातत्व संरक्षण और सांस्कृतिक विरासत के सवाल में आते हैं।
सुनवाई के दौरान CJI भी उस बेंच का हिस्सा थे जिसने यह याचिका सुनकर उसे खारिज कर दिया और यह बताते हुए कहा कि यह मामला असल में पुरातत्व से जुड़ा है तथा इसके संबंध में Archaeological Survey of India (ASI) की भूमिका प्रमुख है। बेंच ने इस याचिका को “publicity interest litigation” कहा और शीर्ष अदालत में इसे आगे नहीं लिया गया। सुनवाई का यह क्रम 16 सितंबर 2025 को दर्ज़ रिपोर्टों के अनुसार सामने आया।
CJI के विवादित शब्द और बाद की सफाई
सुनवाई के वक्त CJI गवैई ने याचिकाकर्ता की ओर से कहा: “यह पूरी तरह से publicity interest litigation है — आप कहते हैं कि आप भगवान विष्णु के परम भक्त हैं तो आप उन्हीं से ही प्रार्थना कीजिए, जाके देवी-देवता से ही कहिए।” इस कथन के सोशल मीडिया पर वायरल होते ही विभिन्न फोरमों पर इसे धार्मिक भावनाओं का अनादर बताकर तीखी निन्दा मिली। बाद में CJI ने अदालत में कहा कि उनके शब्दों को सोशल मीडिया में अलग ढंग से पेश किया जा रहा है और उन्होंने दोहराया कि “मैं सभी धर्मों का सम्मान करता हूँ।”
प्रतिक्रिया — सामाजिक, कानूनी और राजनीतिक
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सोशल मीडिया पर CJI के बयानों के विरुद्ध भारी प्रतिक्रिया आई; कुछ लोगों ने टिप्पणी को धर्मविरोधी या अपमानजनक बताया और कुछ हॅशटैग्स व अपीलें भी वायरल हुईं। कई अधिवक्ताओं और नागरिकों ने न्यायपालिका से मामले को गंभीरता से लेने की अपील करते हुए CJI से अपने शब्द वापस लेने की माँग भी की।
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विश्व हिंदू परिषद (VHP) ने कहा कि न्यायालय में ऐसे बयान देने से बचना चाहिए क्योंकि इससे हिंदू मान्यताओं का माखौल उड़ सकता है। VHP के राष्ट्रीय अध्यक्ष आलोक कुमार ने नेताओं/न्यायालय से बातचीत में टोन और शब्दों के चयन पर संयम बरतने का आग्रह किया।
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कुछ वरिष्ठ वकीलों ने सोशल मीडिया की प्रतिक्रिया पर चिंताएं जताईं; सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने भी कहा कि सोशल मीडिया का प्रतिकिया-चक्र आज बहुत अलग और तीव्र हो गया है। कई विश्लेषक कहते हैं कि जब न्यायिक टिप्पणियाँ धर्म या संस्कृति के नाज़ुक मुद्दों से जुड़ती हैं तो वे जल्दी भावनात्मक बहस का कारण बन सकती हैं।
कानूनी निहितार्थ और संवेदनशीलता
विशेष रूप से पुरातन और संरक्षित स्मारकों से जुड़े मामलों में ASI की नियमावली, संरक्षा नीति और यूनेस्को संबंधी प्रतिबद्धताएँ लागू होती हैं। अदालत ने स्पष्ट किया कि मूर्ति की पुनर्स्थापना, आकार-रूप में बदलाव या प्राण-प्रतिष्ठा जैसे कार्यों के लिए तकनीकी, ऐतिहासिक और संरक्षण-दृष्टिकोण से विचार आवश्यक होते हैं — ऐसे निर्णय साधारण PIL के दायरे में नहीं आ जाते। इसलिए न्यायालय ने मामले को ASI की अधिकारिता और व्यावहारिकता के आधार पर खारिज किया। इसीलिए न्यायिक टिप्पणी और धर्म-संबंधी भावनाओं के बीच संतुलन तैयार रखना आवश्यक समझा जा रहा है।
आगे क्या हो सकता है
फ़िलहाल शीर्ष अदालत ने याचिका खारिज कर दी है और CJI ने सार्वजनिक रूप से अपना रुख स्पष्ट किया है। किन्तु इस घटना ने तीन बड़े प्रश्न उठाये हैं — (1) न्यायपालिका द्वारा वाक्-चयन और भाषण की संवेदनशीलता, (2) सांस्कृतिक-ऐतिहासिक स्थलों पर हस्तक्षेप के अधिकार (ASI बनाम नागरिक-दावे), और (3) सोशल मीडिया पर न्यायिक टिप्पणियों के प्रसार और उसके प्रभाव। इन बिंदुओं पर चर्चा, ड्राफ्टिंग-रूल्स या आचार-संहिता के बारे में भविष्य में विचार हो सकता है — विशेषकर तब जब कोई टिप्पणी तीव्र सामाजिक प्रतिक्रियाओं को जन्म दे।














