
अजमेर शरीफ दरगाह के खादिम सरवर चिश्ती ने दरगाह कमेटी को कोर्ट द्वारा पक्षकार बनाए जाने पर नाराजगी जताई है। उन्होंने कहा कि दरगाह के सभी धार्मिक रीतिरिवाज खादिमों द्वारा ही संपन्न किए जाते हैं, जबकि दरगाह कमेटी का काम केवल प्रबंधन और निगरानी का है।
‘दरगाह की विरासत 800 साल पुरानी, कमेटी का काम सिर्फ प्रबंधन’
सरवर चिश्ती ने कहा, “हमारी खादिम की विरासत 800 साल पुरानी है। 1945 के आदेश में भी साफ लिखा है कि दरगाह के सभी धार्मिक अधिकार खादिमों के पास हैं, जबकि कमेटी केवल प्रशासनिक जिम्मेदारी संभालती है। लेकिन कोर्ट ने आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, माइनॉरिटी मिनिस्ट्री और दरगाह कमेटी को पक्षकार बना दिया, जबकि नोटिस हमें भेजा जाना चाहिए था।”
‘यह कोई ताजमहल या लाल किला नहीं है’
सरवर चिश्ती ने कोर्ट के आदेश पर सवाल उठाते हुए कहा, “यह दरगाह ताजमहल, कुतुब मीनार या लाल किला नहीं है कि इसे सरकारी संपत्ति समझकर नोटिस जारी कर दिया गया। यहां की चाबियां हमारे पास हैं, और हम ही 24×7 दर्शन और रीतिरिवाज करवाते हैं।”
‘मुगल काल से पहले की है दरगाह’
उन्होंने दरगाह के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए कहा, “यह दरगाह मुगल काल में नहीं बनी है। मुगलों का आगमन 1536 में हुआ था, जबकि दरगाह 1236 में स्थापित हुई थी, जब ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह का देहांत हुआ। यह जगह 800 साल पुरानी है, और हिंदू राजाओं ने भी यहां कई निर्माण कराए, लेकिन किसी ने कभी मंदिर का दावा नहीं किया।”
‘खादिमों का दरगाह से संबंध मंदिरों में पुजारियों जैसा’
सरवर चिश्ती ने 1915 के एक ऐतिहासिक फैसले का हवाला देते हुए कहा, “सिविल सूट नंबर 251 में हरबला शारदा ने भी फैसला दिया था कि दरगाह के सभी धार्मिक कार्य खादिम करेंगे, जैसे मंदिरों में पुजारी करते हैं। खादिमों का संबंध दरगाह से सिर्फ ऐतिहासिक नहीं, बल्कि भावनात्मक और धार्मिक भी है।”
‘हरबला शारदा इतिहासकार नहीं थे’
उन्होंने कहा कि जिन हरबला शारदा का उल्लेख किया जा रहा है, वे न तो इतिहासकार थे और न ही शिक्षाविद्। वे एक नगरपालिका के चेयरमैन और एडिशनल जज थे। उनका फैसला खादिमों की भूमिका और अधिकारों को स्पष्ट रूप से स्थापित करता है।
सरवर चिश्ती ने अंत में कहा कि हिंदू सेना द्वारा उठाया गया दावा बेबुनियाद है और इसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है।