
बिहार विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस में बड़े संगठनात्मक बदलाव किए गए हैं। आरजेडी के करीबी माने जाने वाले अखिलेश प्रसाद सिंह को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाकर दलित समाज से आने वाले राजेश कुमार को कांग्रेस की कमान सौंपी गई है। इसके साथ ही युवा नेता कन्हैया कुमार को बिहार की सियासत में उतारने की तैयारी पूरी कर ली गई है। नए बिहार प्रभारी कृष्णा अल्लावुरु के तेवर से भी यह साफ हो गया है कि कांग्रेस अब राज्य में आरजेडी की छाया से निकलकर अपनी अलग सियासी जमीन तलाश रही है। क्या यह कांग्रेस की आत्मनिर्भर बनने की रणनीति का संकेत है? क्या राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे बिहार में पार्टी की नई सियासी तस्वीर गढ़ने में कामयाब होंगे? आइए इस पूरे घटनाक्रम का विश्लेषण करते हैं।
कांग्रेस का नया सियासी समीकरण: लालू की बैसाखी से अलग होने की कोशिश?
बिहार की राजनीति में कांग्रेस का प्रभाव लंबे समय से कमजोर पड़ा हुआ है। सत्ता से बाहर रहने के कारण पार्टी का जनाधार खिसक चुका है, और कई बड़े नेता इसे छोड़कर जा चुके हैं। इस स्थिति में कांग्रेस ने अब तक आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव के सहारे ही अपनी राजनीति आगे बढ़ाई थी। लेकिन हाल के दिनों में कांग्रेस की रणनीति बदली है, और अब वह अपनी सियासी जमीन खुद तैयार करने की कोशिश कर रही है।
माना जा रहा है कि राहुल गांधी और खरगे की नई रणनीति कांग्रेस को आरजेडी की छत्रछाया से बाहर निकालने की है। पप्पू यादव जैसे नेता भी लगातार यह सुझाव देते आए हैं कि कांग्रेस को बिहार में आत्मनिर्भर बनना चाहिए और अपनी स्वतंत्र पहचान बनानी चाहिए।
इस नए सियासी बदलाव की शुरुआत कांग्रेस ने बिहार प्रभारी बदलकर की थी। पहले मोहन प्रकाश को हटाकर युवा नेता कृष्णा अल्लावुरु को प्रभारी बनाया गया, फिर सह-प्रभारी के रूप में शाहनवाज आलम और सुनील पासी की नियुक्ति हुई। खास बात यह रही कि जब कृष्णा अल्लावुरु बिहार दौरे पर गए, तो उन्होंने लालू प्रसाद यादव या तेजस्वी यादव से मुलाकात तक नहीं की। इसके बाद उन्होंने साफ संदेश दिया कि कांग्रेस अब आरजेडी की ‘बी-टीम’ बनकर नहीं चलेगी, बल्कि ‘ए-टीम’ के रूप में विधानसभा चुनाव लड़ेगी। यही बात शाहनवाज आलम भी बार-बार दोहरा रहे हैं।
अखिलेश OUT, कन्हैया IN – बिहार कांग्रेस में ‘कृष्ण-कन्हैया युग’ की शुरुआत?
कृष्णा अल्लावुरु की नियुक्ति के बाद से ही इस बात की अटकलें तेज थीं कि कांग्रेस अपने संगठन में बड़ा फेरबदल करेगी। एक महीने के भीतर ही पहला बड़ा कदम उठाते हुए अखिलेश प्रसाद सिंह को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया गया। उनकी जगह दलित नेता राजेश कुमार को अध्यक्ष बनाया गया।
अखिलेश प्रसाद सिंह को लालू यादव का करीबी माना जाता था। वह आरजेडी से कांग्रेस में आए थे और राज्यसभा भेजे जाने में भी लालू की भूमिका महत्वपूर्ण रही थी। कांग्रेस और आरजेडी के गठबंधन को मजबूत बनाए रखने में अखिलेश सिंह का बड़ा योगदान था। लेकिन कांग्रेस के भीतर एक वर्ग ऐसा भी था, जो लालू यादव की छाया से पार्टी को बाहर निकालने की वकालत करता रहा है।
इस बदलाव से पहले कांग्रेस ने कन्हैया कुमार को बिहार की सियासत में उतारने का फैसला किया। 16 मार्च से उन्होंने यूथ कांग्रेस के बैनर तले ‘पलायन रोको, नौकरी दो’ यात्रा की शुरुआत की। कांग्रेस के इस कदम से संकेत साफ है – वह बिहार में अपनी नई पहचान बनाने की कोशिश में जुट गई है।
कन्हैया कुमार भूमिहार समाज से आते हैं, और कांग्रेस इस रणनीति से सवर्ण वोटों को भी साधने की कोशिश कर रही है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बिहार में कन्हैया कुमार के सक्रिय होने से तेजस्वी यादव की राजनीतिक जमीन को सीधी चुनौती मिल सकती है। लालू यादव भी इस बात को समझते हैं कि कन्हैया की लोकप्रियता बढ़ी तो आरजेडी का जनाधार प्रभावित होगा।
कन्हैया कुमार की एंट्री से क्यों परेशान है आरजेडी?
कन्हैया कुमार छात्र राजनीति से आए हुए युवा नेता हैं, जो शानदार भाषण देने और तर्कपूर्ण तरीके से अपनी बात रखने में माहिर हैं। उनके भाषणों की क्षमता भीड़ खींचने में मदद करती है, जो किसी भी राजनीतिक दल के लिए फायदेमंद होती है।
लालू यादव को इस बात की पूरी समझ है कि यदि कन्हैया बिहार की राजनीति में मजबूत हो जाते हैं, तो उनका असर तेजस्वी यादव के राजनीतिक करियर पर पड़ेगा। यही वजह है कि अब तक आरजेडी ने कन्हैया कुमार को बिहार में मजबूत नहीं होने दिया था। लेकिन कांग्रेस ने अब खुलकर कन्हैया को आगे कर दिया है।
कन्हैया कुमार ने चंपारण के भितिहरवा आश्रम से अपनी पदयात्रा शुरू की है, जो बिहार के विभिन्न जिलों से होते हुए पटना में समाप्त होगी। इस यात्रा के दौरान वह उन्हीं मुद्दों को उठा रहे हैं, जिन पर तेजस्वी यादव अपनी राजनीति को आगे बढ़ाना चाहते हैं। इस तरह कांग्रेस अब सीधे-सीधे आरजेडी के सियासी एजेंडे को चुनौती दे रही है।
नई सोशल इंजीनियरिंग: दलित-मुस्लिम-सवर्ण वोट बैंक पर फोकस
अखिलेश प्रसाद सिंह की जगह दलित नेता राजेश कुमार को बिहार कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर कांग्रेस ने सामाजिक संतुलन साधने की कोशिश की है। प्रदेश अध्यक्ष के लिए पूनम पासवान, प्रतिमा दास समेत कई नामों पर चर्चा थी, लेकिन आखिरकार बाजी विधायक राजेश कुमार ने मारी।
राजेश कुमार कुटुम्बा विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं, और दलित समाज में उनकी मजबूत पकड़ है। कांग्रेस ने उन्हें अध्यक्ष बनाकर यह साफ कर दिया है कि 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव उन्हीं की अगुवाई में लड़ा जाएगा।
कांग्रेस का एक समय दलित, सवर्ण और मुस्लिम वोट बैंक पर मजबूत पकड़ थी। लेकिन हाल के दशकों में यह समीकरण बिगड़ गया। अब कांग्रेस एक बार फिर से इसी गठजोड़ को मजबूत करने की रणनीति बना रही है। राहुल गांधी लगातार दलित समाज के कार्यक्रमों में हिस्सा ले रहे हैं, जिससे यह संकेत मिलता है कि कांग्रेस इस वोट बैंक को दोबारा हासिल करना चाहती है।
क्या कांग्रेस आरजेडी की छाया से बाहर निकल पाएगी?
बिहार में कांग्रेस के हालिया बदलावों से यह स्पष्ट हो गया है कि वह आरजेडी की पिछलग्गू नहीं रहना चाहती। पार्टी अब गठबंधन में सम्मानजनक स्थिति में रहने की कोशिश कर रही है।
इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और आरजेडी के बीच सीट बंटवारे को लेकर बड़ा टकराव देखने को मिल सकता है। कांग्रेस के बदले हुए तेवर बताते हैं कि वह अब अपने शर्तों पर राजनीति करेगी और अपने दम पर मजबूत बनने की दिशा में आगे बढ़ेगी।
कांग्रेस की इस नई रणनीति से बिहार की राजनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है। यदि कांग्रेस अपने दलित-सवर्ण-मुस्लिम समीकरण को दोबारा खड़ा करने में कामयाब होती है, तो बिहार की सत्ता में उसकी भूमिका मजबूत हो सकती है। लेकिन यह राह आसान नहीं होगी, क्योंकि आरजेडी और जेडीयू दोनों कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती बने रहेंगे।
बिहार में कांग्रेस की सियासत एक बड़े बदलाव के दौर से गुजर रही है। नए प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति, कन्हैया कुमार की एंट्री और आरजेडी से दूरी बनाने की कोशिश यह बताती है कि कांग्रेस अब आत्मनिर्भर बनने की दिशा में आगे बढ़ रही है। क्या राहुल गांधी और खरगे की यह रणनीति सफल होगी, या कांग्रेस बिहार में फिर से हाशिए पर चली जाएगी? यह तो आने वाला चुनाव ही तय करेगा!