
नई दिल्ली से बड़ी खबर आ रही है – दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के घर न तो चाय का पानी जला, न ही टोस्ट – बल्कि जल गई नकदी! और इसने पूरे देश में आग लगा दी – संसद से सुप्रीम कोर्ट तक सब जगह बस यही मुद्दा जल रहा है।
मकसद क्या था? पैसे जलाने थे या साक्ष्य मिटाने? या फिर AC नहीं था और नोटों से ही सर्दी से बचाव हो रहा था? सवाल बहुत हैं, जवाब अभी तक धुएं में।
सुप्रीम कोर्ट बोले – “सुनेंगे ज़रूर, पर चिल्लाओ मत”
एक वकील साहब, एडवोकेट मैथ्यूज़ जे. ने सुप्रीम कोर्ट से हाथ जोड़कर कहा – “महोदय, कुछ कीजिए! ये जनहित का विषय है!” सुप्रीम कोर्ट ने गंभीरता दिखाई और कहा – “सुनवाई होगी, लेकिन कोर्टरूम को जंतर-मंतर मत बनाइए।”
सह-याचिकाकर्ता ने भी कहा – “अगर ये किसी आम आदमी के घर होता, तो CBI, ED और NIA सब दौड़ पड़ी होतीं। मैं खुद व्यापारी हूं, मेरे घर जलते नोट मिलते तो शायद अभी जेल में होता!” इस पर चीफ जस्टिस ने भावुक हो उठते हुए कहा – “बस, अब बहुत हो गया… सुनवाई होगी।”
जलते नोट, ठंडी न्यायपालिका
14 मार्च की रात, जब आम दिल्लीवासी Netflix देखकर सो रहा था, तब लुटियंस जोन में एक हाई-प्रोफाइल ‘नकदी की होली’ खेली जा रही थी। रात 11:35 पर आग लगने की सूचना मिली, और मौके से अधजली नकदी बरामद हुई – कुछ ने इसे “आग में तपे हुए नोट” कहा, तो कुछ ने “ब्लैक से ब्लैक एंड वाइट मनी का ट्रांजिशन।”
पुराना कानून बना रोड़ा
याचिका में 1991 के के. वीरस्वामी फैसले को भी चुनौती दी गई है, जिसमें कहा गया था कि किसी भी उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट के जज पर आपराधिक कार्यवाही शुरू करने से पहले भारत के प्रधान न्यायाधीश की अनुमति लेनी ज़रूरी है।
मतलब – जजों पर कार्रवाई से पहले, जजों से ही इजाजत लेनी होगी। और अगर वो न कहें तो? तो फिर शायद नोट ही जलाने पड़ें।
अब आगे क्या?
देश देख रहा है, सुप्रीम कोर्ट सोच रहा है, दिल्ली पुलिस चाय पी रही है – और जनता पूछ रही है, “भाई ये जलते हुए नोटों का केस भी कभी ठंडा होगा?”