पटना — आगामी बिहार विधानसभा चुनाव से पहले बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने आज (10 सितंबर) से ‘सर्वजन हिताय जागरूकता यात्रा’ की शुरुआत कर दी। पार्टी ने यह स्पष्ट किया है कि यह किसी प्रदर्शन की यात्रा नहीं, बल्कि जमीन पर जनता की वास्तविक समस्याएँ उठाने और सामाजिक-न्याय के मुद्दे लेकर हर वर्ग तक पहुँचना इसका उद्देश्य है।
यात्रा का नेतृत्व बसपा के राष्ट्रीय समन्वयक आकाश आनंद और सांसद रामजी गौतम कर रहे हैं। पार्टी के अनुसार यह यात्रा कैमूर जिले से शुरू होकर बक्सर, रोहतास, अरवल, जहानाबाद, छपरा (सारण), सिवान, गोपालगंज, बेतिया, मोतिहारी, मुजफ्फरपुर होते हुए वैशाली में समाप्त होगी — कुल 13 जिलों से गुजरते हुए यह अभियान 11 दिन चलेगा।
पार्टी का मकसद और घोषणाएँ
बसपा ने बार-बार कहा है कि यह यात्रा मात्र शक्ति- प्रदर्शन नहीं, बल्कि बी.आर. आंबेडकर के सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण और संवैधानिक मूल्यों को जमीनी स्तर तक पहुँचाने का प्रयास है। पार्टी के केंद्रीय प्रदेश प्रभारी अनिल कुमार ने प्रेसवार्ता में कहा कि यात्रा का उद्देश्य जनता के अधिकारों और रोज़मर्रा की समस्याओं को प्रकाश में लाना और स्थानीय स्तर पर समाधान के लिए दबाव बनाना है।
रणनीति और चुनावी पोजिशनिंग
बॉलीवुड नहीं, चुनावी मैप पर बसपा की रणनीति साफ है — पार्टी स्वतंत्र रूप से बिहार की सभी 243 विधानसभा सीटों पर प्रत्याशी उतारने का एलान कर चुकी है और किसी गठबंधन के साथ नहीं जा रही। पार्टी प्रमुख मायावती ने इस फैसले की पुष्टि की है और राज्य में संगठनात्मक मजबूती व जनसंपर्क बढ़ाने पर ज़ोर दिया जा रहा है।
विश्लेषण: चुनौती और अवसर
बिहार में बसपा की पारंपरिक पकड़ सीमित रही है और उसे अक्सर ‘वोट-कटवा’ पार्टी के तौर पर देखा गया है — 2015 तथा 2020 के चुनावों में उसकी पैठ टिकने में कठिनाई रही। पार्टी का कहना है कि अब वह दलित–OBC–मुस्लिम के संयोजन पर काम कर रही है और इलाकेवार (जैसे कैमूर) जहाँ दलित वोटों की संरचना अनुकूल है, वहां से मजबूत चुनावी शुरुआत करने की कोशिश है। स्थानीय स्तर पर पार्टी का लक्ष्य है कि ‘जिसकी जितनी जनसंख्या, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ सुनिश्चित की जाए — यानी सामाजिक न्याय के नाम पर सीटों पर समावेशी आरक्षण/प्रतिनिधित्व की नीति अपनायी जाएगी।
कमी/जोखिम
राज्य में पिछले वर्षों में बसपा का ग्राफ घटा है; संगठनात्मक संरचना मजबूत करने और स्थानीय नेता तैयार करने की ज़रूरत है।
बड़ी पार्टियों (RJD, JDU, BJP और अन्य स्थानीय घटक) के बीच स्थानीय नेतृत्व, जातीय समीकरण और संसाधनों की प्रतिस्पर्धा चुनौती बनेगी।
अकेले चुनाव लड़ने का मतलब है कि हर विधानसभा सीट पर जीत का दबाव सीधे पार्टी की चिन्हित रणनीति, उम्मीदवार चयन और जमीन पर एक्टिव वोटर-कॉन्टेक्ट पर टिका होगा।
रास्ते का राजनीतिक नक्शा — कैमूर से वैशाली तक
कैमूर: दलित मतदाताओं की मजबूत उपस्थिति; चार विधानसभा सीटें — रामगढ़, मोहनिया, भभुआ और चैनपुर — जिनकी राजनीतिक तस्वीर मिश्रित रही है।
बक्सर, रोहतास, अरवल, जहानाबाद, सारण (छपरा), सिवान, गोपालगंज, बेतिया, मोतिहारी, मुजफ्फरपुर: हर जिले के अपने जातीय-सामाजिक समीकरण हैं — कहीं यादव-मुस्लिम गठजोड़ प्रभावी, कहीं कुर्मी/कोइरी/वैश्य का दबदबा। बसपा का लक्ष्य इन विविध मतभेदों के बीच दलित–Oबीसी–मुसलमान की गठजोड़ नीति को परखना और इसका विकल्प खड़ा करना है। (जिला-स्तरीय विस्तृत आंकड़े स्थानीय चुनाव रिकॉर्ड व विधानसभा-परिणामों पर आधारित हैं।)
अंत में — क्या बदलेगा बिहार का चुनावी समीकरण?
यात्रा का असर तुरंत वोटों में नहीं दिखेगा, पर ज़मीन पर पार्टी-प्रवेश, स्थानीय नेतृत्व की सक्रियता और संवैधानिक-न्याय के एजेंडे को फैलाने में यह यात्रा उपयोगी साबित हो सकती है। यदि बसपा सफलतापूर्वक स्थानीय नेताओं को मैदान में उतारती है और जातीय समीकरणों में अपना प्रभाव बढ़ा पाती है, तो वह बिहार की राजनीति में एक अहम ‘तीसरा विकल्प’ के रूप में उभर सकती है — खासकर उन सीटों पर जहाँ दलित वोट निर्णायक हैं। लेकिन इसके लिये मजबूत संगठन, संसाधन और लगातार जनसंपर्क अनिवार्य होगा।