
मुंबई, 28 अप्रैल 2025 —
बॉम्बे हाई कोर्ट ने बच्चे की कस्टडी से जुड़े एक महत्वपूर्ण मामले में स्पष्ट कर दिया कि किसी भी बच्चे की अभिरक्षा का निर्णय केवल धर्म के आधार पर नहीं लिया जा सकता। कोर्ट ने कहा कि बच्चे के समग्र कल्याण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए और धर्म केवल एक विचारणीय पहलू हो सकता है, न कि अंतिम और निर्णायक कारक।
जस्टिस सारंग कोटवाल और जस्टिस एसएम मोदक की पीठ ने एक मुस्लिम पिता द्वारा दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को खारिज कर दिया। पिता ने तर्क दिया था कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार, प्राकृतिक अभिभावक होने के नाते बच्ची की कस्टडी उसे दी जानी चाहिए।
मां के साथ रहना बच्चे के सर्वोत्तम हित में
तीन वर्षीय बच्ची फिलहाल दिल्ली में अपनी मां के साथ रह रही है। पिता ने आरोप लगाया था कि मां, जो एक अमेरिकी नागरिक और पेशे से फैशन स्टाइलिस्ट व सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर हैं, मुंबई से चुपके से बच्ची को दिल्ली ले गईं। उन्होंने यह भी दलील दी थी कि मां का भारत से स्थायी संबंध नहीं रह गया है, इसलिए वह उपयुक्त अभिभावक नहीं हो सकतीं।
हालांकि, अदालत ने स्पष्ट किया कि छोटे बच्चों के लिए आमतौर पर मां की उपस्थिति सबसे उपयुक्त और हितकारी होती है। कोर्ट ने कहा:
“नाबालिग के समग्र विकास के लिए कई कारकों पर विचार करना जरूरी है। धर्म उनमें से केवल एक पहलू है, लेकिन अंतिम निर्णय बच्चे के कल्याण के व्यापक विश्लेषण पर आधारित होना चाहिए।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि जब तक कोई असाधारण परिस्थिति न हो, छोटे बच्चों का मां के साथ रहना ही उनके हित में होता है। इसलिए, बच्ची की मां के पास ही उसकी कस्टडी रहना न्यायसंगत और कल्याणकारी होगा।
क्या था मामला?
- याचिकाकर्ता मुंबई निवासी मुस्लिम पिता हैं।
- बच्ची का जन्म 2022 में हुआ था और वह जन्म के बाद से पिता के साथ रह रही थी।
- पिता ने अदालत से मांग की थी कि मुस्लिम कानून के तहत उन्हें बच्ची की कस्टडी सौंपी जाए।
- मां पर यह आरोप लगाया गया कि वह अपने करियर की वजह से लगातार यात्रा करती हैं और भारत से उनका स्थायी संबंध नहीं है।
- कोर्ट ने इन दलीलों को खारिज करते हुए मां के पास बच्ची की कस्टडी बरकरार रखने का फैसला सुनाया।
बॉम्बे हाई कोर्ट का यह फैसला एक महत्वपूर्ण नजीर के रूप में देखा जा रहा है, जो बच्चों के अधिकारों और उनके समग्र कल्याण को धर्म जैसे एकल आयाम से ऊपर रखता है। अदालत ने यह साफ संदेश दिया है कि कस्टडी से जुड़े निर्णय धर्म नहीं, बल्कि बच्चे के हित और उसके पूर्ण विकास को ध्यान में रखकर किए जाने चाहिए।