
मध्य प्रदेश की सियासत इन दिनों एक दिलचस्प मोड़ पर है। भाजपा के भीतर ही अब ऐसा संघर्ष छिड़ा है, जिसमें दुश्मन बाहर नहीं, भीतर ही है। ग्वालियर के भाजपा सांसद भारत सिंह कुशवाहा, जिनके सिर पर संघ का आशीर्वाद है, खुद को अपनी ही पार्टी के एक ‘राजघराने वाले’ सांसद से घिरा पा रहे हैं — और वो हैं गुना से सांसद और केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया।
‘संघी’ बनाम ‘युवराज’
भारत सिंह कुशवाह खुद को खांटी संघी बताते हैं, लेकिन उनका मुकाबला है सिंधिया खानदान के उस चिराग से, जो अपने पूर्वजों के ठाठ-बाठ और कांग्रेस की राजनीति के बाद अब भाजपा के आंगन में ‘घरवापसी’ कर चुके हैं। और संघ? संघ तो परंपराओं का पुजारी है — वहां भी राजा-रजवाड़ों के लिए अलग दर्जा है। कुशवाहा की शिकायतें दिल्ली से लेकर नागपुर तक गूंज रही हैं, लेकिन समाधान नहीं मिल रहा। कारण साफ है — संघ की व्यवस्था में वर्ण और वंश, विचारधारा से ऊपर है।
सांसद, लेकिन दिखावटी
कुशवाहा की सबसे बड़ी पीड़ा यही है कि ग्वालियर से चुने जाने के बावजूद उन्हें सांसद जैसा व्यवहार नहीं मिलता। सरकारी कार्यक्रमों में बुलावा नहीं आता, योजनाओं का श्रेय सिंधिया लूट लेते हैं, प्रशासन उनकी नहीं, युवराज की सुनता है। और ये दर्द अकेले उनका नहीं है — भाजपा की 240 सांसदों की सेना में आधे से ज़्यादा सांसद शायद मन ही मन यही सोचते होंगे, बस आवाज़ कुशवाहा ने उठा दी है।
भाजपा की भीतरी तानाशाही
असल में यह संकट केवल व्यक्तियों का नहीं, भाजपा की पूरी राजनीतिक संरचना का है — जहां लोकतंत्र महज़ दिखावा है, असली सत्ता एक व्यक्ति या उसके इर्द-गिर्द घूमते कुछ दरबारियों के पास होती है। संघ का एकचालकानुवर्ती ढांचा प्रधानमंत्री से लेकर जिला स्तर तक के नेताओं को उसी लाठी से हांकता है, जैसे मनु के राज में वर्ण व्यवस्था चलती थी।
सिंधिया की ‘ज्योति’ में जलते कुशवाहा
1857 की क्रांति में जिस सिंधिया खानदान ने झांसी की रानी का साथ नहीं दिया था, आज उसी वंशज को संघ अपनी गोद में लिए बैठा है। सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ भाजपा की शरण ली, और संघ ने उन्हें सिर माथे पर बैठा लिया। जबकि कुशवाहा जैसे नेता, जो संघ की नर्सरी में पले-बढ़े, आज अपमान के घूंट पीने को मजबूर हैं।
दीया बनो, बाती नहीं
कुशवाहा चाहें जितनी शिकायतें करें, सच्चाई यह है कि भाजपा में उनका दर्जा वही है जो दीये में तेल का होता है — जलो, लेकिन उजाला सिंधिया के नाम का ही हो। संघ को ‘समरसता’ से मतलब है, लेकिन वह समरसता वर्ण व्यवस्था की है, जहां राजा राजा है और बाकी सब प्रजा।
सांसद नहीं, सिर्फ तीन करोड़ के मालिक!
भारत सिंह कुशवाह की ‘गरीबी’ का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि उनके पास सिर्फ (!) तीन करोड़ की संपत्ति है। अब भला वे सिंधिया जैसे राजवंशीय मंत्री से क्या मुकाबला करें? अगर संपत्ति नहीं होती, तो शायद सांसद भी नहीं बन पाते। संघ-भाजपा की राजनीति में विचारधारा से ज़्यादा जरूरी है वंश, वर्ण और वैभव।
भारत सिंह कुशवाह जैसे नेता भाजपा में केवल नाम के लिए सांसद हैं। असली सत्ता आज भी उन्हीं हाथों में है, जिनके पीछे विरासत है, संपत्ति है, और संघ की ‘राजभक्ति’ की छाया है। सिंधिया को ‘ज्योति’ फैलाने दी जाएगी, और कुशवाहा को उस ज्योति में जलते रहना पड़ेगा — यही संघ का अनुशासन है, यही भाजपा की ‘संस्कृति’ है।