
दिल्ली की न्यायनगरी से एक हैरान कर देने वाली खबर आई है, जहाँ CJI संजीव खन्ना को वक्फ बोर्ड की पुरानी फाइलें ना मिलने की ‘अत्यधिक पीड़ा’ हो गई। न्यायमूर्ति महोदय की चिंता इस बात को लेकर थी कि सदियों पुरानी मस्जिदों और वक्फ संपत्तियों के कागज आखिर कहां से लाए जाएं! इस ‘संवेदनशीलता’ ने कोर्टरूम को करुणा कुंड बना दिया।
पर सवाल ये है, माइलाड, अगर वक्फ यूजर कागज नहीं दिखा सकता, तो क्या जिसकी ज़मीन पर ‘बिस्मिल्लाह’ करके वक्फ का झंडा गाड़ दिया गया—वो भी चुप बैठे? जिसने अपने पुश्तैनी मकान, खेत, मंदिर या दुकान को वक्फ की दरियादिली के हवाले होते देखा, उसके कागज़ क्या गंगा में बहा दिए?
ज्ञानवापी और मथुरा के कागज़ तो सुप्रीम कोर्ट की मेज पर हैं। लेकिन CJI खन्ना साहब की नज़र शायद उन फाइलों से ज्यादा कपिल सिब्बल की बातों पर है, जो जामा मस्जिद का हवाला देकर इसे बेकसूर बता रहे हैं। कोई पूछे कि मस्जिद का जिक्र तो कर दिया, पर उस पर पहले क्या था, उसके कागज़ क्यों नहीं दिखाए?
अब सवाल नंबर दो:
इस सुनवाई की ज़रूरत ही क्या थी?
पहला कारण खुद सुप्रीम कोर्ट के ही महामहिम D.Y. चंद्रचूड़ साहब ने बताया था कि “किसी कानून की संवैधानिकता को ऐसे ही चुनौती नहीं दी जा सकती जब तक कोई प्रभावित व्यक्ति ठोस तथ्यों के साथ सामने न आए।”
तो फिर वक्फ संशोधन कानून, जो अभी पैदा भी नहीं हुआ, उस पर संविधान की तलवार कैसे लटकाई जा रही है?
खन्ना जी अगर यही सवाल याचिकाकर्ताओं से पूछते कि वक्फ ने जो संपत्तियाँ हड़पी हैं, उन पर क्या कोई मुसलमान खतरे में है—तो शायद कोर्ट को राहत भी मिलती और देश को भी।
पर नहीं, CJI खन्ना ने सरकार से पूछ लिया कि “क्या आप हिंदू मंदिरों में मुसलमानों को रख सकते हैं?”
माफ कीजिए माइलाड, इस देश में तो रखा गया है।
2013 के कुंभ में मुस्लिम आज़म खान व्यवस्थापक बने, तिरुपति मंदिर का अध्यक्ष दो बार ईसाई बना, ममता दीदी के बंगाल में तो मंदिर बोर्ड की कुर्सी पर मुसलमान बैठा। तमिलनाडु में मंदिरों का धन चर्चों और वक्फ को ट्रांसफर हो रहा है, लेकिन इन सब पर खन्ना जी मौन हैं।
और रही बात वक्फ बोर्ड की—तो माइलाड, वो तो किसी की संपत्ति पर बस कागज नहीं, एक ‘नियत’ भी चिपका देता है, और संपत्ति खुद-ब-खुद ‘वक्फ’ हो जाती है। चाहे वो स्कूल हो, अस्पताल हो, मंदिर हो या आपका घर।और अगर कोई सवाल करे तो अदालतों में खन्ना जैसे ‘संवेदनशील न्याय’ तैयार मिलते हैं।
CJI खन्ना ने चिंता जताई कि वक्फ संशोधन कानून पर हिंसा क्यों हो रही है। लेकिन क्या ये हिंसा याचिकाकर्ताओं की जवाबदेही है? और अगर बंगाल में हिंसा होती है, मंदिरों पर हमले होते हैं, तो खन्ना साहब को ‘राज्य की जिम्मेदारी’ क्यों नहीं दिखती?
10 दिन पहले नोएडा में सिविल केस को क्रिमिनल बना कर यूपी को बदनाम कर दिया कि “यहाँ कानून का राज समाप्त हो गया।”
तो फिर बंगाल में क्या कानून का गुलदस्ता महक रहा है?
खन्ना जी, पहले अपने पास पड़े जस्टिस वर्मा वाले केस का फैसला कर लें, जिसकी तीन जजों की रिपोर्ट धूल खा रही है, फिर वक्फ की विरासत पर ‘संवेदना’ बहाएं।
आख़िर में एक सुझाव:
अगर वक्फ संपत्ति के कागज़ नहीं मिलते, तो खन्ना जी को सुझाव देना चाहिए कि Google Drive पर अपलोड करवा लें—कहीं इतिहास की तरह दस्तावेज़ भी मिटा दिए जाएं। और साथ ही हिन्दू संपत्तियों के भी कागज़ मांगे जाएं—ताकि न्याय किसी एक मज़हब की मोहब्बत न लगे, बल्कि सच में सबके लिए हो।
(संपादक का नोट: वक्फ की दुनिया में दस्तावेज़ नहीं, सिर्फ दावा चलता है। और न्याय के मंदिर में अब मंदिरों की बारी कब आएगी, ये वक्त तय करेगा।)