
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2024 के नतीजे सामने आने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि महायुति की नई सरकार में मुख्यमंत्री पद बीजेपी के पास ही जाएगा। चुनाव में महायुति गठबंधन को भारी जीत मिली, लेकिन जब मुख्यमंत्री पद की बात आई, तो शिवसेना (शिंदे गुट) प्रमुख एकनाथ शिंदे ने बीजेपी के सामने सरेंडर कर दिया।
शिंदे ने सार्वजनिक रूप से कहा कि “बीजेपी जिसे भी मुख्यमंत्री बनाएगी, मैं उसके साथ हूं”। लेकिन सवाल यह है कि क्या शिंदे के लिए यह फैसला लेना इतना आसान था? अगर हां, तो फिर इस घोषणा के लिए उन्होंने चार दिन क्यों लिए? आखिरकार, एकनाथ शिंदे के सरेंडर की असली कहानी क्या है?
बीजेपी को सरकार बनाने के लिए चाहिए थीं सिर्फ 13 सीटें
23 नवंबर को चुनाव नतीजों में बीजेपी ने 132 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी का दर्जा हासिल किया। सरकार बनाने के लिए बीजेपी को किसी सहयोगी दल की सिर्फ 13 सीटों की जरूरत थी।
इस गणित के कारण यह तय हो गया था कि मुख्यमंत्री बीजेपी का ही होगा।
अजित पवार ने फडणवीस के लिए किया समर्थन
महायुति के प्रमुख सहयोगी अजित पवार, जिनके पास 41 विधायक थे, पहले ही समझ गए थे कि मुख्यमंत्री पद का दावा करना संभव नहीं है। उन्होंने देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाने का समर्थन कर दिया।
इस समर्थन के बाद बीजेपी को सरकार बनाने के लिए एकनाथ शिंदे की आवश्यकता नहीं रह गई थी, फिर भी बीजेपी ने शिंदे के अगले कदम का इंतजार किया।
एकनाथ शिंदे ने क्यों किया सरेंडर?
एकनाथ शिंदे ने मुख्यमंत्री पद की दावेदारी की कोशिश की। उनके समर्थक बार-बार तर्क दे रहे थे कि चुनाव उनकी अगुवाई में लड़ा गया है, इसलिए मुख्यमंत्री भी शिंदे को ही बनना चाहिए।
लेकिन शिंदे को भी पता था कि उनके पास केवल 57 विधायकों का समर्थन है, जो सरकार बनाने के लिए पर्याप्त नहीं है।
उन्होंने आखिरकार बीजेपी के सामने झुकना ही बेहतर समझा।
प्रेस कॉन्फ्रेंस में शिंदे ने अपने कामों को गिनाया, पीएम मोदी और अमित शाह की तारीफ की और कहा, “मैं मुख्यमंत्री पद की दौड़ में नहीं हूं। बीजेपी जिसे भी मुख्यमंत्री बनाएगी, मैं उसका समर्थन करूंगा।”
बीजेपी ने क्यों किया इंतजार?
बीजेपी चाहती तो यह ऐलान खुद भी कर सकती थी, लेकिन ऐसा करने से उसकी छवि पर नकारात्मक असर पड़ता।
2019 के घटनाक्रम को देखते हुए इसे दोहराने का खतरा था, जब बीजेपी और शिवसेना (उद्धव ठाकरे) के बीच खटास आ गई थी।
बीजेपी ने शिंदे को मनाने की कोशिश की और आखिरकार शिंदे ने समर्थन दे दिया।
शिंदे के पास बगावत का विकल्प नहीं था
शिंदे जानते थे कि अगर उन्होंने बीजेपी से बगावत की, तो वह सरकार नहीं बना सकते थे।
इसके अलावा, उनकी असली चुनौती शिवसेना के विधायकों को साथ बनाए रखना है।
उद्धव ठाकरे का उदाहरण उनके सामने था, जिन्होंने बगावत की, लेकिन उनकी स्थिति कमजोर हो गई।
शिंदे के लिए यह चुनाव सबक साबित हुआ कि “एकता में ही सुरक्षा है।”
उन्होंने भले ही मुख्यमंत्री पद गंवा दिया हो, लेकिन सत्ता के साथ रहकर उन्होंने अपनी पार्टी और विधायकों को सुरक्षित रखने का फैसला किया।
‘माया मिली न राम’ से बचते हुए खेला ‘सेफ गेम’
एकनाथ शिंदे ने सत्ता के मोह में फंसने के बजाय सेफ गेम खेला।
उन्होंने अपनी पार्टी और विधायकों की सुरक्षा के लिए बीजेपी के साथ रहना ही बेहतर समझा।
इस तरह, शिंदे भले ही मुख्यमंत्री न बन पाए हों, लेकिन सत्ता के समीकरण में उन्होंने खुद को मजबूत स्थिति में बनाए रखा है।