नई दिल्ली — सर्वोच्च अदालत ने भारतीय चिकित्सा संघ (IMA) द्वारा दायर उस याचिका को नामंज़ूर कर दिया, जिसमें पारंपरिक चिकित्सा से जुड़ी कथित भ्रामक विज्ञापनों के खिलाफ कानूनी कदम उठाने की मांग की गई थी। IMA ने विशेषकर पतंजलि आयुर्वेद के उन विज्ञापनों को चुनौती दी थी, जिनके बारे में संगठन ने दावा किया था कि वे आधुनिक चिकित्सा को बदनाम करते हैं और जनता को भ्रामक जानकारी देते हैं।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद तब जन्मा जब 1 जुलाई 2024 को आयुष मंत्रालय ने औषधि एवं प्रसाधन सामग्री नियम, 1945 में एक प्रावधान से छूट दे दी—जिसके बाद आयुर्वेदिक, सिद्ध या यूनानी दवाओं के विज्ञापन हेतु राज्य लाइसेंसिंग अधिकारियों से पूर्व अनुमोदन अनिवार्य नहीं रहा। आलोचकों का कहना था कि इससे झूठे या अतिरंजित दावों को रोकने का एक औपचारिक तंत्र कमजोर हुआ।
रोक-टोक, आग्रह और अलग-अलग सुनवाईयाँ
जुलाई के बाद ही विवाद कोर्ट तक पहुँचा। अगस्त 2024 में न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने उन नियम परिवर्तनों पर अस्थायी रोक लगा दी थी ताकि विज्ञापनों की निगरानी का प्रावधान बरकरार रहे। इसके बाद मामले की सुनवाई में अलग-अलग न्यायाधिकरणों ने प्रश्न उठाए और कई तरह के निर्देश दिए गए।
न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन ने इस पर औचित्य पूछा कि यदि केंद्र ने किसी प्रावधान को हटाया है तो राज्य उस हटाए गए प्रावधान को किस अधिकार से लागू कर सकता है। वहीं न्यायमूर्ति बी.वी. नागरथना ने मामले को बंद करने का सुझाव भी रखा। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि केंद्र द्वारा हटा दिए गए किसी प्रावधान को पुनः लागू करने का अधिकार न्यायालय के पास नहीं है।
अदालत ने नियामक निष्क्रियता पर चिंता जताई
सुप्रीम कोर्ट ने नियामक निकायों की निष्क्रियता और भ्रामक विज्ञापनों के मामलों में तत्परता की कमी पर भी चिंता व्यक्त की थी। अदालत ने पतंजलि के संचालकों बाबा रामदेव और आचार्य बालकृष्ण को कुछ निर्देश जारी किए थे और पतंजलि के खिलाफ अवमानना (contempt) की कार्यवाही भी शुरू की गई थी, जिसे बाद में रोक दिया गया या बंद कर दिया गया।
निर्णय का निहितार्थ
अदालत के ताज़ा निर्णय का मतलब यह हुआ कि IMA की याचिका को खारिज कर दिया गया और नियमन संबंधी नीति-निर्णय—विशेषकर विज्ञापन अनुमोदन का दायरा—विधिक व प्रशासनिक रूप से केंद्र और राज्य की नीतियों के दायरे में ही सुलझाने होंगे। न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि यदि कोई बेबुनियाद, भ्रामक या खतरनाक दावा हो, तो उसके तहत संबंधित विनियामक/प्रशासनिक प्राधिकरणों के पास स्वतंत्र परीक्षा तथा कार्रवाई के विकल्प उपलब्ध हैं।
आगे की राह
स्वास्थ्य-सेक्टर के हस्तक्षेपकारियों के लिए यह मुद्दा अभी भी महत्वपूर्ण बना हुआ है: पारंपरिक चिकित्सा के सन्दर्भ में उपभोक्ता संरक्षण, विज्ञापन सत्यापन और नियामक जवाबदेही पर बहस जारी रहेगी। विशेषज्ञों का मानना है कि नीति निर्माताओं को पारदर्शी मानक व सक्रिय निगरानी व्यवस्था सुनिश्चित करने की आवश्यकता है ताकि जनता की सुरक्षा और वैज्ञानिक चिकित्सा के मानक दोनों बनी रहें।