Thursday, July 31, 2025
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संयुक्त परिवार से उपभोक्तावाद तक: भारत को तोड़ने की वह साजिश, जिसे हमने “आधुनिकता” समझ लिया

भारत की सबसे बड़ी ताकत क्या थी?

सिर्फ GDP नहीं, सिर्फ टेक्नोलॉजी नहीं — भारत की असली ताकत थी उसका संयुक्त परिवार, जहां पीढ़ियाँ साथ रहती थीं, संस्कार पलते थे, और जीवन के हर संकट का हल “अपनेपन” में मिलता था।

कोई अकेला नहीं होता था, इसलिए कोई डिप्रेशन में नहीं होता था।

बुज़ुर्गों के अनुभव जीवन की GPS हुआ करते थे।

बच्चे संस्कारों में पलते थे, स्क्रीन पर नहीं।

त्योहारों में भावना होती थी, विज्ञापन नहीं।

यह व्यवस्था कोई सामाजिक इत्तेफाक नहीं थी — यह हमारी सभ्यता का DNA थी।


फिर क्या हुआ?

मुग़ल आए, नहीं तोड़ सके।
अंग्रेज़ आए, वे भी असफल रहे।
लेकिन जब “आधुनिकता” आई, तब धीरे-धीरे हमारी आत्मा ही छीन ली गई — हमें ऐसा लगा मानो “न्यूक्लियर फैमिली” ही तरक्की की अंतिम सीढ़ी है।

हमने खुद से ही कहा —
“संयुक्त परिवार तो पिछड़ों का होता है।”
“अपने लिए जीना चाहिए।”
“सास-बहू के झगड़े से अच्छा है अलग रहना।”

किसने कहा था ये सब?

नहीं, ये आपके विचार नहीं थे — ये डिज़ाइन किए गए विचार थे।


क्यों थी संयुक्त परिवार से नफ़रत?

क्योंकि जब लोग साथ रहते हैं, तो:

कम खरीदते हैं,

ज़्यादा साझा करते हैं,

बाज़ार पर कम निर्भर होते हैं।

और पश्चिमी उपभोक्तावादी मॉडल को बाज़ार चाहिए, भावनाएं नहीं।

वे जानते थे —
“जब परिवार टूटेंगे, तभी बाज़ार जुड़ेगा।”
और फिर शुरू हुई एक सांस्कृतिक साजिश


मीडिया और मार्केटिंग का मिला-जुला हमला

मीडिया ने मानसिकता बदली

परिवार को झगड़ों का अड्डा दिखाया गया

‘आज़ादी’ का मतलब ‘अलग रहना’ बता दिया गया

न्यूक्लियर फैमिली को ग्लैमरस बनाया गया

टीवी शो में हर रिश्ते को नकारात्मक रंग दिया गया

बाज़ार ने ज़रूरतें गढ़ीं

जब एक संयुक्त परिवार चार न्यूक्लियर इकाइयों में बंट गया, तो:

एक फ्रिज की जगह 4 फ्रिज बिके

एक गैस चूल्हे की जगह 4 किचन सेट

एक दिवाली की पूजा की जगह 4 Amazon carts

बाज़ार में बूम आया, और समाज टूट गया।


और समाज में क्या गिरा?

बुज़ुर्ग Retirement Home में हैं

बच्चे Screen Parenting से पल रहे हैं

त्योहार सिर्फ Social Media पोस्ट बनकर रह गए हैं

रिश्तों को ‘Block’ और ‘Unfollow’ करना सीख लिया गया है

जो बात दादी से होती थी, वो अब Therapist से होती है।
जो अपनापन पहले रिश्तों से मिलता था, अब वो “Apps” से माँगा जा रहा है।


बाज़ार कैसे सोचता है?

Zomato को तब मुनाफा होता है, जब आप माँ का खाना छोड़ें

Netflix को आप तभी देखेंगे, जब आप दादी की कहानी न सुनें

Amazon को फायदा तभी है, जब आप दिवाली पर अकेले हों और shopping therapy करें

बाज़ार ने हमारी ज़रूरतों को Emotionally Hijack कर लिया।


अब भी देर नहीं हुई है: आइए वापसी करें

संयुक्त परिवार को “Backdated” नहीं, Backbone मानिए

बुज़ुर्गों को बोझ नहीं, जीवित पुस्तकालय समझिए

बच्चों को ग्राहक नहीं, संस्कारी नागरिक बनाइए

त्योहारों को ऑनलाइन डील से नहीं, परिवार की मीठी बातों से सजाइए

अकेलेपन से लड़ने के लिए App नहीं, अपनापन लाइए


“पश्चिम ने व्यापार के लिए परिवार तोड़े, और हम—आधुनिक बनने के भ्रम में—अपने ही संस्कारों को रौंद बैठे।”

अब अगर हम नहीं जागे, तो अगली पीढ़ी को “दादी”, “चाचा”, “भाईदूज” और “पड़ोसी” जैसे शब्दों का अर्थ बताने के लिए भी Google चाहिए होगा।

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VIKAS TRIPATHI
VIKAS TRIPATHIhttp://www.pardaphaas.com
VIKAS TRIPATHI भारत देश की सभी छोटी और बड़ी खबरों को सामने दिखाने के लिए "पर्दाफास न्यूज" चैनल को लेके आए हैं। जिसके लोगो के बीच में करप्शन को कम कर सके। हम देश में समान व्यवहार के साथ काम करेंगे। देश की प्रगति को बढ़ाएंगे।
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