भारत के पूर्व रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के शताब्दी वर्ष पर एक विशेष लेख लिखा है। उन्होंने कहा कि साल 2025 में जब संघ अपने 100वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है, यह केवल किसी संगठन की वर्षगांठ नहीं है, बल्कि आधुनिक भारत की यात्रा का एक अहम अध्याय है।
“संघ की आत्मा — निस्वार्थ सेवा और अनुशासन”
प्रभु ने लिखा कि नागपुर में 1925 में शुरू हुई छोटी-सी पहल आज विश्व के सबसे प्रभावशाली सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलनों में से एक है। फिर भी इसकी सबसे बड़ी विशेषता इसका विस्तार नहीं, बल्कि उसकी आत्मा है — निःशब्द, अनुशासित और निस्वार्थ सेवा। लाखों स्वयंसेवक बिना किसी मान्यता या प्रसिद्धि की चाह के अपने जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित करते हैं।
प्राकृतिक आपदाओं से सामाजिक तनाव तक
अपने सार्वजनिक जीवन के अनुभव साझा करते हुए प्रभु ने कहा कि जब भी प्राकृतिक आपदाएं आईं, सबसे पहले स्वयंसेवक राहत सामग्री लेकर पीड़ितों तक पहुंचे। जब भी सामाजिक तनाव बढ़ा, संघ कार्यकर्ताओं ने संवाद और सहयोग से समाज को जोड़ा। उनका मंत्र हमेशा यही रहा है: “कार्य कीजिए ताली के लिए नहीं, भारत माता के लिए।”
संघ के शाश्वत मूल्य
सुरेश प्रभु के अनुसार, संघ की 100 वर्ष की यात्रा को टिकाऊ बनाने वाले मूल्य हैं — निस्वार्थ सेवा, अनुशासन, जाति-समुदाय से परे एकता, भारतीय संस्कृति पर गर्व और राष्ट्र को सर्वोपरि रखना। यही संस्कार भारत निर्माण में सबसे बड़ा योगदान है। स्वयंसेवक स्वयं के लिए नहीं, बल्कि समाज के लिए सोचता है।
भारत के भविष्य और संघ की प्रासंगिकता
उन्होंने कहा कि जब भारत एक वैश्विक शक्ति के रूप में उभर रहा है, तब आरएसएस की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। प्रगति केवल आर्थिक आंकड़ों से नहीं मापी जा सकती, बल्कि मजबूत मूल्यों, एकजुट समाज और सुदृढ़ पारिवारिक ढांचे से तय होगी। संघ की शताब्दी दृष्टि इन्हीं सवालों को केंद्र में रखती है और याद दिलाती है कि सच्ची प्रगति तब होगी जब हर भारतीय सम्मान और गरिमा के साथ जी सके।
पर्यावरण, शिक्षा और आत्मनिर्भर भारत में योगदान
पर्यावरण मंत्री के रूप में अपने अनुभव साझा करते हुए प्रभु ने कहा कि नीतियां तभी सफल होती हैं जब समाज खुद आगे आए। इस दृष्टि से भी संघ हमेशा अग्रणी रहा है — पेड़ लगाना, नदियों को बचाना और टिकाऊ जीवनशैली को बढ़ावा देना इसकी पहचान रही है। शिक्षा के क्षेत्र में भी संघ ने मूल्य-आधारित शिक्षा का समर्थन किया है, जो मातृभाषा पर आधारित है और आधुनिक विज्ञान-तकनीक को भी अपनाती है। आर्थिक क्षेत्र में संघ का “स्वदेशी” आग्रह आज आत्मनिर्भर भारत की आधारशिला साबित हो रहा है।
महिलाओं, वंचितों और सामाजिक समरसता की दिशा में कार्य
संघ का कार्य किसी एक क्षेत्र तक सीमित नहीं है। यह महिलाओं के नेतृत्व को प्रोत्साहित करने, वंचित वर्गों के उत्थान और समाज में व्याप्त विभाजनों को मिटाने में सक्रिय रहा है। प्रभु ने कहा कि कोई भी सरकारी योजना तभी सफल होती है जब उसके साथ समाज की ऊर्जा जुड़ती है, और यही ऊर्जा संघ अपने स्वयंसेवकों के जरिए देता आया है।
2047 और वसुधैव कुटुंबकम्
जब भारत स्वतंत्रता की शताब्दी (2047) की ओर देख रहा है, तब प्रश्न यह है कि हमारी उन्नति केवल ढांचों और तकनीक से परिभाषित होगी या फिर करुणा, जिम्मेदारी और एकता से भी? प्रभु ने कहा कि संघ की शताब्दी दृष्टि हमें बताती है कि भारत का असली योगदान विश्व को केवल आर्थिक प्रगति तक सीमित नहीं होगा, बल्कि “वसुधैव कुटुंबकम्” की सनातन भावना में होगा।
“संघ और भारत की कहानी अलग नहीं”
प्रभु ने लिखा कि शासन तभी सफल होता है जब समाज अनुशासित और संगठित हो। सरकारें नीतियां बना सकती हैं, लेकिन उन्हें सार्थक बनाना नागरिकों का दायित्व है। संघ ने पिछले 100 सालों में ऐसे ही नागरिक तैयार किए हैं। उन्होंने कहा, “संघ की शताब्दी केवल उत्सव नहीं, यह सेवा, समरसता और स्थिरता के प्रति सामूहिक प्रतिबद्धता के नवीकरण का आह्वान है।”
सुरेश प्रभु ने विश्वास जताया कि आने वाले वर्षों में संघ भारत के नैतिक दिशा-सूचक के रूप में काम करता रहेगा। उन्होंने सभी नागरिकों से आह्वान किया कि वे स्वयंसेवक की भावना — नम्रता, अनुशासन और निस्वार्थ सेवा — को अपने जीवन में उतारें। ऐसा करके हम न केवल संघ के 100 वर्षों का सम्मान करेंगे, बल्कि भारत की उस यात्रा के सहभागी बनेंगे जो उसे विश्व में उसके योग्य स्थान तक ले जाएगी।