Wednesday, October 8, 2025
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दिल्ली हाईकोर्ट ने उठाया बड़ा सवाल: क्या अब यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड (UCC) लागू करने का समय नहीं आ गया?

नई दिल्ली — दिल्ली हाईकोर्ट ने एक नाज़ुक और संवेदनशील कानूनी टकराव को उजागर करते हुए पूछा है कि क्या व्यक्तिगत कानूनों और राष्ट्रीय आपराधिक कानून के बीच बनती हुई विरोधाभाष की स्थायी समाझ्याका समाधान अब कानून बनाकर (UCC) ही किया जाना चाहिए। यह टिप्पणी जस्टिस अरुण मोंगा ने एक ऐसे मामले में कही है जहाँ एक 24 वर्षीय व्यक्ति पर नाबालिग के साथ संबंध और विवाह का आरोप था — लेकिन मामले में उम्र, सहमति और गिरफ्तारी प्रक्रियागत त्रुटियों पर गंभीर प्रश्न खड़े किए गए।

मामला संक्षेप में—तथ्य और प्रक्रिया

यह सुनवाई Hamid (BAIL APPLN. 2867/2025) नामक याचिका पर हुई, जिसमें अभियुक्त (आवेदक) पर आरोप था कि उसने एक नाबालिग लड़की के साथ संबंध किए और बाद में इस लड़की से इस्लामिक विधि के अनुसार विवाह कर लिया। कोर्ट ने नोट किया कि विवाह 4 जून 2024 को धार्मिक विधि के अनुसार किया गया और दंपति के एक पुत्र का जन्म भी हो चुका है। परन्तु उम्र के प्रमाण दस्तावेज अतर्क्य और विवादित थे — जन्म प्रमाण पत्र, अस्पताल के रिकार्ड और अभियोजन के रिकॉर्ड में उम्र पर असहमतियां पाई गईं। ऐसे विवादित तथ्य पर अभी सुनवाई के जरिए ही निर्णय होना है।

कोर्ट की मुख्य टिप्पणियाँ—UCC की ओर संकेत

जस्टिस मोंगा ने कहा कि इस तरह के मामलों में एक “दोहरी परिस्थिति” बनती है: इस्लामिक व्यक्तिगत कानून के तहत, यदि लड़की ने यौवन (puberty) प्राप्त कर लिया है तो विवाह वैध माना जा सकता है, जबकि भारतीय आपराधिक कानून (Bharatiya Nyaya Sanhita — BNS तथा POCSO Act) के तहत वही संबंध/विवाह पति को अपराधी बना देता है। इस लगातार पैदा होने वाले “टकराव” के मद्देनज़र कोर्ट ने विधायिका (Parliament/State Legislatures) को संकेत देते हुए कहा कि स्थायी समाधान केवल विधायिका के माध्यम से ही आ सकता है — और क्या अब यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड की दिशा में बढ़ने का समय नहीं आ गया?

कानूनी विसंगति — किस तरह बनती है दुविधा

व्यक्तिगत/धार्मिक कानून (जैसे शरिया) कुछ परिस्थितियों में विवाह की वैधता धार्मिक मानदंडों के अनुसार देखते हैं, जिनमें लड़की के यौवन पर आधारित मान्यताएँ शामिल हो सकती हैं।

राष्ट्रीय आपराधिक कानून/बच्‍चों की सुरक्षा कानून (BNS/POCSO) बच्चों के साथ यौन संबंधों को अपराध मानता है और संरक्षण देता है — इसलिए शादी के बावजूद पति पर आपराधिक धाराएँ चल सकती हैं।
इस विरोधाभास का असर यह होता है कि एक ही कृत्य को एक कानूनी ढांचे में वैध और दूसरे में अपराध माना जा सकता है — जिससे कानून की समानता और निवारक स्पष्टता प्रभावित होती है।

गिरफ्तारी और जमानत — कोर्ट ने क्या पाया

कोर्ट ने यह भी पाया कि अभियुक्त की गिरफ्तारी के समय पुलिस ने स्थापित प्रक्रिया का पालन नहीं किया — उसे 24 घंटे के भीतर न्यायिक समक्ष पेश नहीं किया गया और-written grounds of arrest नहीं दिए गए; इस बात का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि यह गिरफ्तारी Article 22 और संबंधित BNSS प्रावधानों का उल्लंघन है। ऐसे प्रक्रियागत दोषों, अभियोजन पक्ष की देरी और prosecutrix (यानी लड़की) के बयान में असमानताओं के चलते हाईकोर्ट ने अभियुक्त को जमानत देने का निर्देश दिया। कोर्ट ने यह भी अमीकस क्यूरी (amicus curiae) और इस्लामी कानून के विशेषज्ञ से राय लेने का निर्णय लिया था ताकि तथ्यगत व कानूनी पहलुओं की ठोस समझ बन सके।

न्यायिक संदेश — संसद/विधायिका को ज़िम्मेदारी

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि व्यक्तिगत धर्म-आधारित कानूनों और राष्ट्रीय दंड- तथा संरक्षण कानूनों के बीच उत्पन्न होने वाले नियमित टकराव का “स्थायी” समाधान न्यायपालिका के क्षेत्र से बाहर है — इसे संसद/विधायिका द्वारा संबोधित किया जाना चाहिए। न्यायालय ने यह सुझाव नहीं दिया कि कौन-सा समाधान अपनाया जाए, बल्कि उभरते हुए वैविध्यपूर्ण प्रावधानों को राष्ट्रीय कानूनी फ़्रेमवर्क के अनुरूप स्पष्ट करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया।

संदर्भ में हालिया विकास — उच्चतम न्यायालय और अन्य उच्च न्यायालयों के रूझान

हाल के कुछ उच्च रोक-न्यायिक फैसलों ने भी इसी दिशा में बहस को हवा दी है: पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट और कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने निजी मामलों और “यौवन पर विवाह” जैसी दलीलों पर अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाए हैं, और राष्ट्रीय स्तर पर UCC पर बहस तीव्र हुई है — विशेषकर तब से जब कुछ राज्यों/हाईकोर्ट्स ने UCC लागू करने या उसके पक्ष में सिफ़ारिशें करने के संकेत दिए हैं। ये घटनाक्रम विधायिका की सक्रिय भूमिका की आवश्यकता की तस्दीक करते हैं।

निहितार्थ — समाज, कानून और नीति के लिए क्या मायने रखता है

1.कानून की समानता और सुरक्षा: यदि व्यक्तिगत कानून किसी दशा में ऐसे नियम मानते हैं जो राष्ट्रीय संरक्षण कानूनों से टकराते हैं, तो पीड़ितों की सुरक्षा और कानून की सार्वभौमिकता पर असर पड़ता है।

2.विधायी स्पष्टता की आवश्यकता: संसद/विधायिका को यह तय करना होगा कि किन क्षेत्रों में व्यक्तिगत कानूनों को बरकरार रखा जाएं और किन मामलों में राष्ट्रीय स्तर पर समान नियम लागू होंगे — खासकर बच्चों की सुरक्षा और महिला अधिकारों के संदर्भ में।

3.न्यायिक सावधानी और प्रक्रियागत जाँच: अभियोजन प्रक्रिया और गिरफ्तारी के समय लागू प्रक्रिया का कड़ाई से पालन न होने पर भी संवैधानिक अधिकारों का हनन होता है — जो स्वतंत्र न्यायिक समीक्षा का विषय है।


दिल्ली हाईकोर्ट की टिप्पणियाँ केवल एक व्यक्तिगत मामले तक सीमित नहीं — उन्होंने एक व्यापक संरचनात्मक प्रश्न उठाया है। जब व्यक्तिगत धार्मिक प्रथाएँ राष्ट्रीय दंड- और सुरक्षा कानूनों से टकराएँ, तो विवेकपूर्ण, संवैधानिक और विधायी समाधान की ज़रूरत उभरकर आती है। सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाईकोर्ट्स के हालिया प्रवृत्तियों के बीच यह बहस तेज होती दिख रही है—और हाईकोर्ट ने साफ कहा कि स्थायी व संतुलित समाधान के लिए अंतिम अधिकार विधायिका के पास होना चाहिए!

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VIKAS TRIPATHI
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