नई दिल्ली — राष्ट्रपति और राज्यपालों को राज्य विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए न्यायालय द्वारा समय-सीमा निर्धारित करने के मुद्दे पर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में लिखित दलीलें दाखिल कर दी हैं। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता की ओर से प्रस्तुत 93-पन्नों के विस्तृत जवाब में कहा गया है कि ऐसे आदेश से कार्यपालिका-विधायिका-न्यायपालिका के बीच नाजुक शक्ति विभाजन (separation of powers) भंग होगा और संवैधानिक अव्यवस्था पैदा होने का जोखिम बन जाएगा।
केंद्र का तर्क — न्यायालय सीमा तय कर संवैधानिक अधिकार नहीं बदल सकता
दलील में केंद्र ने स्पष्ट किया है कि संविधान ने राष्ट्रपति और राज्यपालों को जो विवेकाधिकार (discretionary powers) दिए हैं, उन पर अदालत द्वारा कठोर समय-सीमा थोपना न्यायपालिका का अनावश्यक हस्तक्षेप होगा। सरकार ने कहा है कि यदि न्यायालय ऐसे निर्देश देता है तो वह उन शक्तियों को अपनाने जैसा होगा जो संविधान में न्यायालय को नहीं दी गईं — इससे संवैधानिक संतुलन प्रभावित होगा।
Article 142 और संवैधानिक संशोधन का मुद्दा
केंद्र ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट की अनुच्छेद 142 के तहत पारंपरिक—व्यापक शक्तियाँ हैं, पर वे भी संविधान का स्वरूप बदलने या संविधान निर्माताओं की मंशा को पलट देने के लिए प्रयोग नहीं की जा सकतीं। अरुचिकर प्रक्रियाएँ अथवा “राज्यपाल को अधीनस्थ करार देना” जैसी स्थितियाँ न्यायालय द्वारा लागू नहीं की जानी चाहिए, सरकार ने दृढ़ता से कहा।
राजनीतिक और संवैधानिक उपायों की वकालत
केंद्र ने तर्क दिया कि राष्ट्रपति/राज्यपाल के कृत्यों से जुड़ीं किसी भी शिकायत का समाधान राजनीतिक या संवैधानिक तंत्रों के जरिए होना चाहिए — जैसे सरकारें, संसदीय मार्ग, या संवैधानिक समन्वय—न कि न्यायिक आदेशों के ज़रिये जो शासन-प्रक्रिया का स्वरूप ही बदल दें। सरकार ने कहा कि सीमित क्रियान्वयन-समस्याएँ हो सकती हैं, पर उनका हल संवैधानिक ढाँचे के भीतर ही निकाला जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई की रूपरेखा
यह मामला अब संविधान पीठ में आएगा: मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवैया अध्यक्षता वाली पाँच-न्यायाधीपीठ 19 अगस्त से 10 सितंबर तक सुनवाई करेगी। सुनवाई के दौरान राष्ट्रपति-संदर्भ तथा अदालत के ओर प्रस्तुत दलीलों के वैधानिक और नीतिगत प्रभावों पर विस्तृत बहस होने की संभावना है।
संवैधानिक दायित्व बनाम न्यायिक हस्तक्षेप
केंद्र की लिखित दलील का संदेश स्पष्ट है: संवैधानिक पदों पर निर्णय-लेने की स्वायत्तता और विवेकाधिकार को बनाए रखना लोकतांत्रिक शासन के लिए अनिवार्य है, और न्यायालय को समय-सीमा जैसे उपायों के माध्यम से शासन-प्रक्रिया में वह बदलाव नहीं लाना चाहिए जो संवैधानिक संतुलन को कमजोर कर दे। अगले तीन हफ्तों की सुनवाई में यह तय होगा कि न्यायिक निगरानी और संवैधानिक विवेक के बीच सीमा-रेखा कैसे रेखांकित की जाएगी।