कर्नाटक के उडुपी स्थित ऐतिहासिक श्री कृष्ण मठ, जिसकी परंपरा लगभग 800 वर्षों से चल रही है, देश की संस्कृति और आध्यात्मिकता का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शुक्रवार, 28 नवंबर को अपने एक दिवसीय कर्नाटक-गोवा दौरे की शुरुआत इसी पवित्र मठ से करने जा रहे हैं — एक ऐसा आयोजन जो धार्मिक परंपरा और राष्ट्रीय स्तर के समारोह दोनों का संगम बनेगा।
मठ का संक्षिप्त परिचय और ऐतिहासिक महत्व
श्री कृष्ण मठ का स्थापत्य और आध्यात्मिक इतिहास द्वैत वेदांत दर्शन से जुड़ा हुआ है। इसकी स्थापना 13वीं शताब्दी में महान दार्शनिक जगद्गुरु माधवाचार्य द्वारा की गई थी, जिन्होंने वेदों-उपनिषदों पर आधारित इस दर्शन को जन-जन तक पहुँचाया। मठ की अनूठी विशेषता यह है कि यहाँ स्थापित भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति का मुख पश्चिम की ओर है — इस वजह से मठ आध्यात्मिक और स्थापत्य दोनों दृष्टियों से विशिष्ट माना जाता है।
कनककिंडि — भक्ति की अमिट गाथा
मठ से जुड़ा सबसे प्रेरक प्रसंग संत कनकदास की कहानी है। कहा जाता है कि सामाजिक कारणों से जब उन्हें मठ के भीतर प्रवेश नहीं मिला, तो उनकी अटूट भक्ति के आगे भगवान कृष्ण स्वयं मूर्ति घुमाकर उनको झरोखे से दर्शन देने के लिए जाने जाते हैं। आज वह झरोखा—‘कनककिंडि’—भक्तों के लिए विशेष पूजन स्थल है और भक्ति का प्रतीक बना हुआ है।

‘लक्षकंठ गीतापारायण’ — एक विशाल आध्यात्मिक कार्यक्रम
प्रधानमंत्री के आगमन के मुख्य आकर्षणों में से एक है मठ के प्रांगण में आयोजित ‘लक्षकंठ गीतापारायण’। रिपोर्टों के अनुसार इस कार्यक्रम में लगभग 1 लाख प्रतिभागी सामूहिक रूप से श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ करेंगे — एक ऐसा मौलिक दृश्य जहाँ लाखों कंठों से गीता की शिक्षाएँ एक साथ गुंजायमान होंगी। यह आयोजन न केवल आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार करेगा, बल्कि सामाजिक एकता और सांस्कृतिक पहचान का भी प्रतीक बनेगा।
अन्य कार्यक्रम और समर्पण-उद्घाटन
प्रधानमंत्री मोदी इस अवसर पर मठ के गर्भगृह के सामने निर्मित ‘सुवर्णतीर्थमंडप’ का उद्घाटन करेंगे। साथ ही, पवित्र कनककिंडि के लिए वे स्वर्ण कवच-समर्पण भी करेंगे — एक प्रतीकात्मक उपहार जो उस घटना और संत की भक्ति को श्रद्धांजलि देता है।
समाप्ति में — ऐतिहासिकता और सामूहिक भाव
800 साल पुराना श्री कृष्ण मठ न सिर्फ धर्मिक स्थल है, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक स्मृति और सामाजिक इतिहास का एक जीवंत दस्तावेज़ भी है। प्रधानमंत्री का यह दौरा और ‘लक्षकंठ गीतापारायण’ जैसे कार्यक्रम उस विरासत को राष्ट्रीय मंच पर और अधिक अर्थपूर्ण रूप से प्रस्तुत करने का अवसर हैं — जहाँ इतिहास, भक्ति और सामूहिक अनुभव आपस में मिलकर एक नया संदेश देते हैं।














