नई दिल्ली: पारिवारिक संपत्ति के बंटवारे को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाया है। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि अगर कोई पारिवारिक समझौता रजिस्टर्ड नहीं है, तब भी वह बंटवारे को साबित करने के लिए पूरी तरह वैध साक्ष्य माना जाएगा, भले ही उससे संपत्ति पर स्वामित्व (टाइटल) स्थापित न हो सके।
जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस संदीप मेहता और जस्टिस एन.वी. अंजनिया की बेंच ने यह फैसला सुनाते हुए कर्नाटक हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट के फैसलों को निरस्त कर दिया। अदालत ने कहा कि निचली अदालतों ने कानून की गलत व्याख्या की थी और अपीलकर्ता के पक्ष में मौजूद महत्वपूर्ण दस्तावेजों को नजरअंदाज किया गया था।
निचली अदालतों ने किया कानून का गलत प्रयोग: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने संपत्ति को संयुक्त पारिवारिक संपत्ति मानते हुए सभी वारिसों में समान बंटवारे का आदेश दे दिया था, जो कि गलत था।
अदालत ने स्पष्ट किया कि पंजीकृत त्याग-पत्र (registered relinquishment deed) अपने आप में वैध होता है और इसके लिए किसी अतिरिक्त औपचारिकता की आवश्यकता नहीं होती।
वहीं, अपंजीकृत पारिवारिक समझौता भले ही स्वामित्व का अधिकार न दे, लेकिन इसे बंटवारे के साक्ष्य के रूप में पूरी तरह स्वीकार किया जा सकता है।
क्या होता है पारिवारिक समझौता (Family Settlement)?
पारिवारिक समझौता वह दस्तावेज या समझौता होता है जो परिवार के सदस्यों के बीच संपत्ति के बंटवारे, हिस्सेदारी या किसी विवाद के समाधान के लिए आपसी सहमति से तैयार किया जाता है। यह लिखित या मौखिक दोनों रूपों में हो सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि फैमिली सेटलमेंट को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, क्योंकि यह न केवल परिवार में शांति और सौहार्द बनाए रखता है, बल्कि भविष्य के मुकदमों से भी बचाता है।
फैसले का महत्व
यह निर्णय भविष्य में ऐसे कई मामलों पर प्रभाव डालेगा, जहां पारिवारिक बंटवारा बिना रजिस्ट्री के समझौते के आधार पर हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के जरिए यह संदेश दिया है कि कानून का उद्देश्य परिवारों को जोड़ना है, तोड़ना नहीं।














