नई दिल्ली : सर्वोच्च न्यायालय ने सोमवार को एक संवेदनशील यौन अपराध मामले में निचली अदालत के द्वारा सुनाई गई सज़ा को बरकरार रखा और पटना उच्च न्यायालय के उस आदेश को खंडित कर दिया जिसमें दोनों आरोपियों को बरी किया गया था। यह मामला भारतीय दंड संहिता (IPC) और बाल यौन अपराधों की रोकथाम और संरक्षण अधिनियम (POCSO) से संबंधित है — जिसमें पीड़िता केवल 12 वर्ष की थी।
बेंच का निष्कर्ष: प्रक्रियागत कमियाँ दोषियों को बचाने का अवसर नहीं बन सकती
न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति सतीश चन्द्र शर्मा की बेंच ने अपने आदेश में कहा कि अक्सर मामूली विसंगतियों, प्रक्रियात्मक खामियों या तर्कसंगत विरोधाभासों को अतिशयोक्तिपूर्ण रूप से बढ़ाकर “संदेह से परे” के मानक तक ले जाया जाता है — जिससे असल अपराधी बच निकलते हैं। बेंच ने स्पष्ट कहा कि इस सिद्धांत का मूल उद्देश्य निर्दोषों की रक्षा है, परंतु इसका गलत इस्तेमाल समाज की सुरक्षा और आपराधिक न्याय व्यवस्था दोनों के लिए खतरनाक है।
मामला और निचली अदालत का फैसला
निचली अदालत ने तथ्यों और चिकित्सीय साक्ष्य के आधार पर दोनों आरोपियों को दोषी ठहराकर आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई थी। पीड़िता के पिता ने पटना हाई कोर्ट के निर्णय को चुनौती दी — और अब सर्वोच्च न्यायालय ने इस अपील पर अपना फैसला सुना दिया।
पटना हाई कोर्ट के फैसले को रद्द करने का आधार
शीर्ष अदालत ने माना कि कुछ मामूली प्रक्रियात्मक कमजोरियों को लेकर पीड़िता की लगातार गवाही और चिकित्सकीय प्रमाणों को पलटना या उन्हें बेध की दृष्टि से खारिज करना न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। बेंच ने कहा कि यदि अपराध के गवाहों की गवाही समग्रता में विश्वसनीय है और चिकित्सीय/वैकल्पिक साक्ष्य भी तात्पर्य रखते हों, तो मामूली अंतरालों को लेकर दोषियों को छूट नहीं दी जा सकती।
“सामाजिक असुरक्षा” और न्याय व्यवस्था पर प्रभाव
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी आगाह किया कि वास्तविक अपराधियों का अदालतों में बच जाना समाज में असुरक्षा की भावना पैदा करता है और आपराधिक न्याय व्यवस्था पर कलंक है। अदालत ने कहा कि जब कोई जघन्य यौन अपराध बिना पीड़िता के बारे में जानकारी दिए तथा उसकी स्थिति का दुरुपयोग कर प्रक्रियागत नियमों का सहारा लेकर नकारा जा सके, तो वह पूरी व्यवस्था की विफलता कहलाएगा।
संतुलन: निर्दोष की रक्षा और अपराधी पर शिकंजा
बेंच ने दो महत्वपूर्ण सिद्धांतों का द्वैत रेखांकित किया: एक, किसी निर्दोष पर दंड न हो — और दो, प्रक्रियागत सामान्यताओं के नाम पर वास्तविक अपराधियों को बरी न किया जाए। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ऐसे मामलों में न्यायिक संवेदनशीलता और सामाजिक सुरक्षा के बीच संतुलन बनाने का प्रयास है — ताकि विधि का उद्देश्य प्रभावी रूप से लागू हो सके और पीड़ितों को न्याय मिल सके।