नई दिल्ली — जगदीप धनखड़ के इस्तीफे के बाद 27 दिनों तक चल रही अटकलों के बीच बीजेपी ने जब तमिलनाडु के सी.पी. (चन्द्रपुरम पोनुस्वामी) राधाकृष्णन को एनडीए का उपराष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित किया, तो सियासी गलियारों में तुरंत यह सवाल उठे — “बाहरी उम्मीदवारों (बिहार/बंगाल/जाट नेताओं) की बजाय राधाकृष्णन को क्यों चुना गया?” नीचे उन राजनीतिक, चुनावी और सामाजिक कारणों को तार्किक रूप में एक जगह समेटकर समझाया गया है।
संक्षिप्त पृष्ठभूमि — राधाकृष्णन कौन हैं?
पूरा नाम: चन्द्रपुरम पोनुस्वामी (सी.पी.) राधाकृष्णन।
राजनीतिक अनुभव: कोयम्बटूर से दो बार सांसद (1998, 1999); लंबे समय से बीजेपी से जुड़े नेता।
हालिया संवैधानिक पद: झारखंड और फिर महाराष्ट्र के राज्यपाल।
सामाजिक पृष्ठभूमि: तमिलनाडु के गाउंडर/वेल्लार समुदाय से आते हैं — स्थानीय तौर पर प्रभावी और समाजशास्त्रीय तौर पर महत्वपूर्ण जातिगत समूह।
1)राजनीतिक गणित और गठबंधन-संवेदी कारण — बिहार/जाट/बंगाल क्यों नहीं?
(क)बिहार और गठबंधन संवेदनशीलता:
बीजेपी का बिहार में जेडीयू से गठबंधन है; जेडीयू के पास पहले से ही उप सभापति/महत्वपूर्ण शैडो-प्रशासनिक हिस्सेदारी का दबाव रहता है। अगर उपराष्ट्रपति की सीट बिहार-समर्थक किसी नेता को दी जाती तो गठबंधन के भीतर व सहयोगी दलों में प्रतिद्वंद्विता/दवाब बढ़ सकता था।
(ख)जाट-आधारित दावों की राजनीति:
जाट वोट बैंक जिन राज्यों में निर्णायक हैं (उत्तर-पश्चिम भारत), वहाँ अब अगले दो वर्षों में बड़े चुनाव नहीं हैं या राजनीतिक समीकरण बीजेपी के पक्ष में तय हैं — अतः तत्काल राजनीतिक लाभ कम था।
(ग)बंगाल का परिदृश्य:
बंगाल में राज्य स्तर पर भाजपा अभी भी विपक्ष की भूमिका में है; वहां का नेतृत्व और समीकरण (स्थानीय दलों व भाजपा) ऐसे फैसलों से प्रभावित हो सकता था—नतीजा, जोखिम अधिक माना गया।
नतीजा: गठबंधन-संतुलन और क्षेत्रीय गठजोड़ को बिना हानि पहुँचाए ‘बेस-लाइनों’ को बचाये रखना BJP के लिये प्राथमिकता था — इसलिए बिहार/जाट/बंगाल विकल्प पीछे रहे।
2)तीन प्रमुख रणनीतिक कारण — राधाकृष्णन क्यों चुने गए (तार्किक व्याख्या)
(A)‘मुर्मू मॉडल’ को दोहराने का इरादा — प्रतीकात्मक राष्ट्रव्यापी सन्देश
2022 में द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति बनना बीजेपी के लिये सफल प्रतीक रहा — एक आदिवासी महिला का सर्वोच्च पद पर आना ओडिशा में और समग्र वोटर-बेस में सकारात्मक असर दिखा।
राधाकृष्णन के चयन से पार्टी दक्षिण (विशेषकर तमिलनाडु) में ‘प्रतिनिधित्व का संदेश’ देना चाहती है — यह कहने का तरीका कि BJP केवल उत्तर/पश्चिम नहीं बल्कि दक्षिण के समुदायों को भी राष्ट्रीय स्तर पर तरजीह दे रही है।
मतलब: पार्टियों ने यह समझा कि संवैधानिक पदों पर प्रदेशीय शामिलियत का सियासी लाभ हो सकता है — खासकर जब अगला लक्ष्य 2026 का तमिलनाडु विधानसभा चुनाव है।
(B)दक्षिणी मोर्चे को मज़बूत करना — चुनावी एवं राजनीतिक पहुँच बढ़ाना
तमिलनाडु में BJP की जड़ें कमजोर रहीं; राधाकृष्णन के नाम से दिल्ली का संदेश दक्षिण को उन्हें ‘राजनीतिक गले लगाना’ है।
राज्यपाल अनुभव और स्थानीय-सामाजिक नेटवर्क के कारण वे दक्षिण में सहयोगी तथा प्रभावकारी चेहरे के रूप में काम आ सकते हैं — चुनावी संपर्क, स्थानीय नेताओं के साथ पुल का काम।
(C)जातीय-सांस्कृतिक समीकरण (सवर्ण/मध्यम-वर्ग संतुलन)
पिछले कुछ वर्षों में सर्वोच्च पदों पर उपस्थिति के गणित ने कुछ समुदायों का प्रतिनिधित्व सीमित कर दिया था। राधाकृष्णन के चयन से बीजेपी ने सवर्ण/क्षेत्रीय संतुलन का भी ध्यान रखा — गाउंडर समुदाय को शामिल कर भाजपा ने समाजिक-आइडेंटिटी बैलेंस साधने की कोशिश की।
यह एक अवसर है कि “प्रतिनिधित्व” और “सामाजिक समीकरण” दोनों दिखाए जाएँ — ताकि किसी समुदाय का सरकारी हिस्सेदारी का संदेश फैल सके।
3)ऑप्टिक्स व द्वि-आयामी संदेश — घरेलू और संघीय पक्ष
संविधानिक/सेक्टोरल मैसेज: राधाकृष्णन जैसे अनुभवी शासकीय चेहरे को चुनकर BJP यह भी दिखाना चाहती है कि वे संवैधानिक पदों पर अनुभवी, प्रशासनिक योग्य चेहरे लाती है — केवल चुनावी तिकड़म नहीं।
दिग्गजों का भरोसा व संगठनात्मक शांति: पार्टी के शीर्ष नेतृत्व (जेपी नड्डा, राष्ट्रीय बोर्ड) ने सर्वसम्मति के टोन में चुनाव कर संगठन के भीतर सुरक्षात्मक संकेत भेजा कि फैसले कड़े राजनीतिक संतुलन व रणनीति के हिसाब से लिए गए।
क्षेत्रीय असंतुलन सुधारने का संकेत: पिछले वर्षों में सर्वोच्च पदों का केंद्र व उत्तर-पश्चिम का झुकाव रहा — राधाकृष्णन के चयन से दक्षिणी राज्यों को जो प्रतिनिधित्व की कमी मानी जा रही थी, उसे कुछ हद तक पूरा करने का संदेश गया।
4)संभावित निहितार्थ व विपक्ष/साझेदारों की प्रतिक्रिया
गठबंधन दलों का रुख: allies (विशेषकर JDU जैसे) को संतुष्ट करने के लिये भाजपा ने बिहार/जाट नेताओं को टाल दिया — इससे गठबंधन संतुलन बना रहेगा, पर कुछ सहयोगी निर्णय से असंतुष्ट भी दिख सकते हैं।
विरोधी प्रतिक्रिया: विपक्ष इसे ‘सिंबलिक पावर-प्ले’ या ‘राजनीतिक साजिश’ कहकर आलोचना करेगा — तथा ‘सद्भाव’ बनाम ‘रणनीति’ का सवाल उठेगा।
तमिलनाडु प्रभाव: स्थानीय राजनीति में यह तत्काल वोट-लहर में बदलता है या नहीं, यह तय नहीं — पर हल्का सकारात्मक सिग्नल स्थानीय एलाइट व कुछ जातिगत समूहों में भेजता है।
5) प्रक्रिया और आगे की राह
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अब औपचारिक नामांकन और संसदीय मतों की प्रक्रिया रहेगी; NDA का बहुमत देखते हुए राधाकृष्णन का चुनाव संभावित माना जा रहा है।
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चुनाव के बाद उनके निर्वाचित होने पर पार्टी उम्मीद करेगी कि वे केंद्र-राज्य संवाद, दक्षिण भारत के साथ संबंध सुधारने और संवैधानिक गरिमा को बनाए रखने में मदद करेंगे।
सी.पी. राधाकृष्णन के नाम पर अंतिम मुहर — तात्कालिक रूप से गठबंधन-संवेदनशीलता, दक्षिण में पहुंच बढ़ाने की रणनीति, और जातीय/सामाजिक संतुलन— इन तीन बड़े तार्किक कारणों पर आधारित दिखाई देती है। BJP ने सियासी जोखिम कम रखने और दीर्घकालिक चुनावी-क्षेत्रीय लक्ष्यों के मद्देनज़र यह फैसला लिया है। यह निर्णय केवल एक नाम चुनने का मामला नहीं रहा — बल्कि अगले दो वर्षों के चुनावी कैलेंडर, गठबंधन-रचनाओं और सामाजिक समीकरण का परिणाम माना जा सकता है।