अमृतसर – पंजाब पुलिस की एक भयावह परत 32 साल बाद न्याय के तराजू पर आ खड़ी हुई है। सीबीआई की विशेष अदालत ने 1993 में अमृतसर जिले के रानी विल्लाह गांव के सात युवकों की हत्या के फर्जी मुठभेड़ कांड में पंजाब पुलिस के पांच पूर्व अधिकारियों को दोषी करार दिया है। इनमें एक पूर्व वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी), एक डिप्टी एसपी और तीन अन्य अधिकारी शामिल हैं।
दोषी करार दिए गए अधिकारियों में पूर्व एसएसपी भूपिंदरजीत सिंह, डीएसपी दविंदर सिंह, इंस्पेक्टर सूबा सिंह, एएसआई गुलबर्ग सिंह और एएसआई रघबीर सिंह शामिल हैं — सभी अब सेवानिवृत्त हैं। अदालत ने उन्हें हत्या, आपराधिक साजिश, सबूत नष्ट करना और रिकॉर्ड से छेड़छाड़ जैसे गंभीर अपराधों में दोषी पाया है। कोर्ट अब 29 जुलाई को सजा सुनाएगी।
क्या था मामला: युवाओं को उठाकर थर्ड डिग्री, फिर फर्जी मुठभेड़ में मार डाला गया
यह मामला 27 जून 1993 से शुरू होता है, जब सरहाली थाने के तत्कालीन एसएचओ गुरदेव सिंह के नेतृत्व में एक पुलिस टीम ने सरकारी ठेकेदार जोगिंदर सिंह के घर से तीन एसपीओ (विशेष पुलिस अधिकारी) — शिंदर सिंह, देसा सिंह और सुखदेव सिंह, और दो अन्य युवकों — बलकार सिंह उर्फ बॉबी और दलजीत सिंह को उठा लिया। ये सभी गनमैन के तौर पर काम कर रहे थे।
पुलिस ने उन्हें संगतपुरा गांव में हुई डकैती के झूठे मामले में कबूलनामे के लिए हिरासत में रखा और थर्ड डिग्री दी। इसके बाद पुलिस ने एक नाटक रचा — 12 जुलाई 1993 को पुलिस ने एक ‘मुठभेड़’ दिखाई, जिसमें दावा किया गया कि मंगल सिंह, शिंदर सिंह, देसा सिंह और बलकार सिंह आतंकवादियों के साथ मारे गए। उनके शवों को लावारिस बताकर अंतिम संस्कार कर दिया गया।
CBI की जांच ने खोले कई राज़
शुरुआत में सबूत छुपा लिए गए, लेकिन एसपीओ शिंदर सिंह की पत्नी नरिंदर कौर की शिकायत पर 1999 में सीबीआई ने मामला दर्ज किया। जांच में पता चला कि:
गिरफ्तार युवकों को पहले ही मार दिया गया था,
शवों के साथ बंदूकें, कारतूस की बरामदगी गढ़ी गई,
मृत्यु से पहले उन्हें यातनाएं दी गई थीं,
पुलिस रिकार्ड में शवों की पहचान के बावजूद उन्हें ‘लावारिस’ बताया गया।
इसके अलावा, वेरोवाल थाना पुलिस की भूमिका भी सामने आई। वेरोवाल पुलिस ने तीन और युवकों — सरबजीत सिंह (हंसावाला), सुखदेव सिंह और हरविंदर सिंह (जलालाबाद) को अगवा कर एक और फर्जी मुठभेड़ में मार दिया। इनके पीछे भी डीएसपी भूपिंदरजीत सिंह और इंस्पेक्टर सूबा सिंह का नाम सामने आया।
न्याय की लंबी लड़ाई और टूटते सबूत
सीबीआई ने 2002 में कुल 13 पुलिसकर्मियों के खिलाफ चार्जशीट दायर की थी, जिनमें कई वरिष्ठ अधिकारी शामिल थे। लेकिन न्याय की यह प्रक्रिया अत्यंत धीमी रही:
2010 से 2021 तक केस की सुनवाई स्थगित रही,
इस दौरान 5 आरोपी पुलिसकर्मियों की मृत्यु हो गई,
सीबीआई ने 67 गवाह पेश किए, लेकिन 36 की मृत्यु हो गई और सिर्फ 28 गवाहों की ही गवाही हो पाई।
अब क्या आगे?
फिलहाल पांच दोषियों को न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया गया है। 29 जुलाई को सजा का ऐलान होना है। यह फैसला उन पीड़ित परिवारों के लिए न्याय की पहली किरण है, जिन्होंने 32 साल तक अपने बच्चों के इंसाफ की उम्मीद नहीं छोड़ी।
कहानी सिर्फ कानून की नहीं, इंसाफ की भी है
यह मामला केवल पुलिसिया अत्याचार का उदाहरण नहीं है, यह सत्ता की अंधेर नगरी में दबे इंसाफ की आवाज़ है, जो आखिरकार उभरकर सामने आई। यह एक सिस्टम के भीतर सड़ांध और विकलांग न्याय प्रक्रिया की गवाही देता है, लेकिन साथ ही यह भी दिखाता है कि जब एक माँ, एक पत्नी या एक बहन हार नहीं मानती, तो सच को मरने से रोका जा सकता है।