
मोदी सरकार ने ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए आगामी जनगणना के साथ-साथ जातिगत जनगणना कराने की घोषणा की है। यह फैसला महज जातियों की संख्या गिनने तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि इससे देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संरचना में एक बड़ा बदलाव आने की संभावना है। केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव के अनुसार, अब प्रत्येक जाति की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति का भी व्यापक मूल्यांकन किया जाएगा।
1931 के बाद पहली बार… अब बदलेगा गणना का पैमाना
भारत में आखिरी जातिगत जनगणना 1931 में हुई थी। स्वतंत्रता के बाद जातीय विभाजन से बचने के उद्देश्य से जनगणना से जाति-आधारित गणना को बाहर रखा गया। लेकिन 94 साल बाद अब जब मोदी सरकार ने इसे फिर से शुरू करने का फैसला लिया है, तो सवाल उठ रहा है कि इससे देश की सियासत और आरक्षण प्रणाली में क्या बड़े बदलाव आएंगे?
ओबीसी के लिए आंकड़ों का अभाव अब होगा दूर
अब तक अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की जनसंख्या का कोई प्रमाणिक आंकड़ा नहीं था। जो भी दावे किए जाते थे, वे 1931 की जनगणना पर आधारित थे, जिसमें OBC की आबादी 52% बताई गई थी। मंडल आयोग ने भी इसी अनुमान के आधार पर 27% आरक्षण की सिफारिश की थी। लेकिन जातिगत जनगणना के बाद पहली बार यह स्पष्ट होगा कि देश और राज्यों में OBC की वास्तविक संख्या क्या है। बिहार, कर्नाटक और तेलंगाना जैसे राज्यों के जातीय सर्वेक्षणों में OBC की आबादी 63-65% तक पाई गई है
आरक्षण की 50% सीमा पर सीधा प्रभाव
सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण पर लगाई गई 50% की सीमा जातिगत जनगणना के बाद एक बार फिर बहस के केंद्र में आ सकती है। यदि आंकड़े यह दर्शाते हैं कि OBC की जनसंख्या 50% से कहीं अधिक है, तो वे जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण की मांग कर सकते हैं। यह वही तर्क है जो अनुसूचित जातियों और जनजातियों के आरक्षण में भी अपनाया गया था। जातिगत जनगणना सरकार को ठोस डेटा मुहैया कराएगी, जिससे आरक्षण की नीतियों को पुनर्संतुलित किया जा सकेगा।
सियासी परिदृश्य में बड़े बदलाव के संकेत
जातिगत जनगणना का असर सिर्फ आंकड़ों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि इससे देश की राजनीति की धुरी बदल सकती है। मंडल आयोग के बाद जिन क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ—जैसे सपा, आरजेडी, जेडीयू, बसपा, और अपना दल—वह अब और मजबूत हो सकते हैं। जिन जातियों की जनसंख्या अधिक पाई जाएगी, वे राजनीतिक रूप से संगठित होकर अपने लिए अधिक प्रतिनिधित्व की मांग कर सकती हैं। इससे संसद और विधानसभाओं का जातिगत समीकरण पूरी तरह से बदल सकता है।
महिला आरक्षण और ‘कोटे में कोटा’ की मांग
33% महिला आरक्षण के कानून के बाद अब राजनीतिक दलों की नई मांग OBC, SC/ST महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण देने की है। कांग्रेस, सपा और बसपा जैसे दल लंबे समय से ‘कोटे में कोटा’ की मांग कर रहे हैं। जातिगत जनगणना इन मांगों को और बल दे सकती है, जिससे महिला आरक्षण भी वर्गीकृत हो सकता है।
नौकरियों और शिक्षा पर गहरा असर
अगर आरक्षण की सीमा बढ़ती है और निजी संस्थानों में भी लागू होता है, तो इसका असर स्कूल, कॉलेजों और नौकरियों में भी दिखेगा। पिछड़ी जातियों के छात्रों की संख्या शिक्षण संस्थानों में बढ़ सकती है। सरकारी नौकरियों में उन जातियों की हिस्सेदारी बढ़ेगी जो अब तक उपेक्षित रही हैं।
सीटों का समीकरण और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में बदलाव
जातिगत आंकड़ों से यह स्पष्ट हो जाएगा कि किस क्षेत्र में कौन सी जाति प्रभावशाली है। इससे राजनीतिक दल अपने प्रत्याशियों का चयन जनसंख्या के अनुपात में कर सकते हैं। जिन जातियों की आबादी कम निकलेगी, उनके टिकट कट सकते हैं और जिनकी अधिक होगी, वे राजनीति में उभर सकती हैं।
वित्त आयोग और नीति-निर्माण पर असर
जातिगत जनगणना वित्त आयोग के लिए भी एक महत्वपूर्ण उपकरण बन सकती है। यह आंकड़े सरकार को पिछड़े समुदायों के लिए लक्षित योजनाएं बनाने में मदद करेंगे। राज्यों को उनके सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर अनुदान और संसाधन मिल सकते हैं। इससे ‘सामाजिक न्याय आधारित विकास’ को गति मिलेगी।
सामाजिक तानाबाना: फायदे और संभावित खतरे
हालांकि यह जनगणना सामाजिक न्याय की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम मानी जा रही है, लेकिन इसके साथ सामाजिक तनाव की संभावना भी जताई जा रही है। मंडल आंदोलन के दौर में जैसे हिंसक प्रदर्शन हुए थे, उसी तरह अब भी जातियों के बीच टकराव, असंतोष और ध्रुवीकरण की आशंका है। ऐसे में सरकार और समाज दोनों को यह सुनिश्चित करना होगा कि जनगणना के आंकड़ों का उपयोग राजनीतिक लाभ के लिए नहीं, बल्कि समावेशी विकास के लिए हो।
आंकड़ों से आगे, सामाजिक संतुलन की चुनौती
जातिगत जनगणना सिर्फ एक जनसांख्यिकीय प्रक्रिया नहीं, बल्कि भारत के सामाजिक ताने-बाने में एक निर्णायक मोड़ है। इससे न केवल पिछड़ी जातियों को उनका हक मिलने का मार्ग प्रशस्त होगा, बल्कि सामाजिक न्याय की अवधारणा को भी नए मायने मिलेंगे। लेकिन साथ ही इसके साथ सामाजिक समरसता को बनाए रखना और राजनीतिक उद्देश्यों के लिए जातियों का दोहन रोकना सबसे बड़ी चुनौती होगी।