
नई दिल्ली, 28 अप्रैल 2025 —
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में साफ कर दिया है कि काजी कोर्ट, दारुल कजा, और शरिया अदालतें भारतीय कानून के तहत कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं हैं। कोर्ट ने कहा कि इन निकायों द्वारा दिया गया कोई भी आदेश या निर्देश कानूनन बाध्यकारी नहीं है और न ही उसे लागू किया जा सकता है।
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस एहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने यह टिप्पणी उस समय की, जब वे एक महिला की अपील पर फैसला सुना रहे थे, जिसने इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस निर्णय को चुनौती दी थी, जिसमें फैमिली कोर्ट द्वारा उसे गुजारा भत्ता न देने का फैसला बरकरार रखा गया था। फैमिली कोर्ट ने अपना निर्णय काजी अदालत में हुए एक कथित समझौते के आधार पर दिया था।
कोर्ट ने क्या महत्वपूर्ण बातें कही:
- “काजी की अदालत”, “दारुल कजा”, “शरिया अदालत” चाहे जिस भी नाम से हों, भारतीय कानून में इन्हें कोई मान्यता प्राप्त नहीं है।
- इनके द्वारा दिए गए निर्देश या निर्णय तब तक बाध्यकारी नहीं हैं, जब तक संबंधित पक्ष स्वेच्छा से उन्हें स्वीकार न करें, और वे किसी अन्य कानून का उल्लंघन न करते हों।
- अगर पक्षकार स्वेच्छा से इन्हें स्वीकार भी कर लें, तो भी ऐसे निर्णय तीसरे पक्ष पर लागू नहीं होंगे।
पीठ ने अपने निर्णय में 2014 के विश्व लोचन मदन बनाम भारत संघ मामले का हवाला दिया, जिसमें पहले ही कहा गया था कि शरिया अदालतों और फतवों को भारत में कोई कानूनी मान्यता नहीं है।
क्या था मामला:
अपीलकर्ता महिला की शादी 2002 में इस्लामिक रीति-रिवाज से हुई थी। दोनों पक्षों की यह दूसरी शादी थी।
2005 में पति ने भोपाल की एक काजी अदालत में तलाक के लिए मामला दायर किया, जिसे बाद में समझौते के आधार पर खारिज कर दिया गया।
2008 में पति ने फिर से दारुल कजा में तलाक की याचिका लगाई, वहीं पत्नी ने भरण-पोषण के लिए सीआरपीसी की धारा 125 के तहत फैमिली कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
फैमिली कोर्ट ने महिला के भरण-पोषण के दावे को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि वह खुद झगड़े की वजह थी और अपने व्यवहार के चलते पति को छोड़कर चली गई थी। साथ ही फैमिली कोर्ट ने यह भी मान लिया कि चूंकि यह दूसरी शादी थी, इसलिए दहेज का सवाल ही नहीं उठता।
सुप्रीम कोर्ट ने फैमिली कोर्ट की जमकर आलोचना की:
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दूसरी शादी होने के कारण दहेज की मांग नहीं होगी, यह धारणा पूरी तरह अनुचित और गैरकानूनी है।
- कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि समझौते में पत्नी द्वारा किसी गलती को स्वीकार करने की बात नहीं कही गई थी।
- फैमिली कोर्ट का फैसला केवल अनुमानों और धारणाओं पर आधारित था, जो कानून के सिद्धांतों के खिलाफ है।
सुप्रीम कोर्ट का अंतिम आदेश:
सुप्रीम कोर्ट ने पति को निर्देश दिया कि वह पत्नी को फैमिली कोर्ट में भरण-पोषण याचिका दायर करने की तारीख से प्रति माह ₹4,000/- रुपये भरण-पोषण के रूप में अदा करे।
कोर्ट ने साफ किया कि भारत में कानून का शासन सर्वोपरि है और किसी भी धार्मिक निकाय या संस्था के आदेश से नागरिकों के अधिकारों का हनन नहीं किया जा सकता।