
मुंबई/चेन्नई: महाराष्ट्र में हिंदी भाषा को तीसरी अनिवार्य भाषा बनाए जाने की खबरों के बीच मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने साफ किया है कि राज्य में मराठी भाषा अनिवार्य बनी रहेगी और किसी अन्य भाषा को जबरन थोपा नहीं जाएगा। उन्होंने कहा, “यह कहना गलत है कि हिंदी थोपने की कोशिश की जा रही है। राज्य में मराठी की जगह कोई नहीं ले सकता।”
फडणवीस का यह बयान तब आया है जब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने केंद्र सरकार से स्पष्ट जवाब मांगा है कि क्या वह फडणवीस के इस रुख का समर्थन करती है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) के तहत महाराष्ट्र में मराठी के अलावा कोई अन्य भाषा तीसरी अनिवार्य भाषा नहीं होगी।
स्टालिन का केंद्र सरकार से सवाल – “क्या अब तीसरी भाषा पढ़ाना अनिवार्य नहीं?”
सीएम स्टालिन ने X (पूर्व में ट्विटर) पर पोस्ट कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान से पूछा है कि यदि महाराष्ट्र में तीसरी भाषा के तौर पर हिंदी अनिवार्य नहीं है, तो क्या केंद्र इस नीति को सभी राज्यों के लिए लागू करेगा?
उन्होंने सवाल किया, “अगर तीसरी भाषा अब अनिवार्य नहीं है, तो क्या केंद्र सरकार इसे लेकर सभी राज्यों को स्पष्ट दिशानिर्देश जारी करेगी?”
स्टालिन ने यह भी आरोप लगाया कि 2,152 करोड़ रुपये की केंद्र की सहायता राशि को तमिलनाडु के लिए केवल इस आधार पर रोका गया है कि राज्य ने तीसरी भाषा नीति को नहीं अपनाया।
NEP पर विरोध, विपक्षी दलों की भी चिंता
इससे पहले, 20 अप्रैल को महाराष्ट्र की भाषा परामर्श समिति ने मुख्यमंत्री से अपील की थी कि कक्षा 1 से 5 तक हिंदी को अनिवार्य तीसरी भाषा बनाने के प्रस्ताव को रद्द किया जाए।
इसके बाद शिवसेना (उद्धव गुट) और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) जैसे विपक्षी दलों ने आरोप लगाया कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के नाम पर राज्य में हिंदी थोपी जा रही है।
सीएम फडणवीस ने इस आलोचना को नकारते हुए दोहराया, “मराठी का सम्मान और उसका स्थान अडिग रहेगा। हिंदी की अनिवार्यता की कोई योजना नहीं है।” उन्होंने स्पष्ट किया कि महाराष्ट्र में भाषा नीति स्थानीय संवेदनशीलताओं को ध्यान में रखकर तय की जाएगी।
तीसरी भाषा फॉर्मूले पर राष्ट्रीय बहस
इस विवाद ने एक बार फिर राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में शामिल तीसरी भाषा फॉर्मूले को केंद्र में ला खड़ा किया है। गैर-हिंदी भाषी राज्यों, खासकर दक्षिण भारत में, इसे लेकर लंबे समय से आपत्ति जताई जा रही है।
क्या केंद्र सरकार अब इस पर स्पष्ट दिशा निर्देश जारी करेगी या राज्य अपने हिसाब से निर्णय लेते रहेंगे—यह सवाल अब शिक्षा नीति के भविष्य के लिए अहम बन गया है।