गुवाहाटी / दिल्ली, 14 सितंबर — असम के दारांग जिले में जनसभा के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बारे में दिए गए बयान ने राजनीतिक बहस तेज कर दी है। पीएम ने कहा था कि 1962 के चीनी आक्रमण के दौरान नेहरू द्वारा असम को दिए गए घाव आज तक भरे नहीं हैं — इस टिप्पणी पर कांग्रेस ने तीखा पलटवार किया और पार्टी के प्रवक्ता पवन खेड़ा ने सोशल मीडिया पर नेहरू का 19 नवंबर 1962 का राष्ट्र के नाम संबोधन साझा कर प्रधानमंत्री के दावे को खंडित करने की कोशिश की।
क्या कहा पीएम ने — विकास से लेकर “घुसपैठ” तक
पीएम मोदी ने अपने संबोधन में न केवल ऐतिहासिक नुक्ते उठाए, बल्कि राज्य के विकास का भी बखान किया — उन्होंने डारंग मेडिकल कॉलेज, हाईवे और रिंग रोड सहित बड़े बुनियादी ढाँचे की परियोजनाओं का उद्घाटन/शिलान्यास किया और कहा कि भाजपा सरकार ने अवैध दावों के खिलाफ सख्ती दिखाई है तथा “घुसपैठियों” से लाखों एकड़ जमीन वापस ली जा रही है। उन्होंने यह दायित्व कांग्रेस के शासनकाल की विफलताओं से जोड़कर पेश किया।
पवन खेड़ा का जवाब: नेहरू का 1962 का भाषण पोस्ट कर पूछा—किस बात का झूठ?
कांग्रेस के वरिष्ठ प्रवक्ता पवन खेड़ा ने X (पूर्व में Twitter) पर नेहरू का 19 नवम्बर 1962 का रेडियो संबोधन साझा करते हुए लिखा कि नेहरू ने उस समय पूरे उत्तर-पूर्व के साथ खड़े रहने का आश्वासन दिया था। खेड़ा ने पूछा कि प्रधानमंत्री को असम और उत्तर-पूर्व के लोगों से “झूठ” बोलने से पहले इन शब्दों को पढ़ लेना चाहिए — और औपचारिक दस्तावेज़ दिखाकर उनकी बात का खंडन किया।
राजनीति और इतिहास का टकराव — दोनों पक्षों की कशमकश
यह विवाद केवल इतिहास पर बहस मात्र नहीं है — इसमें वर्तमान अधिकार-निति, जमीन से जुड़े दावे और पहचान के मसले भी जुड़ गए हैं। मोदी के तर्क का राजनीतिक उद्देश्य यह दिखाना है कि उनकी सरकार ने पूर्व की नीतियों की गलतियों को सुधारते हुए पूर्वोत्तर के विकास और सुरक्षा पर काम किया है; वहीं कांग्रेस इस तरह के दावों को इतिहास की सटीकता और तथ्यात्मक संदर्भ के आधार पर चुनौती दे रही है।
विपक्ष-सरकार के ऑपरेटर: क्या लाभ-हानि होगी?
विश्लेषकों का मानना है कि ऐसे बयान चुनावी महत्व रखते हैं — इतिहास के ज़रिए भावनात्मक जुड़ाव बनाया जा सकता है और स्थानीय संवेदनशीलताओं को उभारा जा सकता है। वहीं विपक्षी प्रतिक्रिया इसे तत्काल राजनीतिक घेराबंदी का हथियार बना देती है। दोनों ओर से जारी बयानबाजी तेज़ होती दिख रही है और संवाद का केन्द्र बनकर असम तथा उत्तर-पूर्व का इतिहास और पहचान बार-बार उठाया जा रहा है।