ग्राम प्रधान जी का कार्यकाल अब अपने अंतिम चरण में है। पांच वर्षों तक जिम्मेदारी निभाने के बाद, अब कुछ ही माह का समय शेष है। बीते वर्षों में विकास के कई कार्य हुए, तो कई बार चुनौतियों ने भी रास्ता रोका। अब जब कार्यकाल समाप्ति की ओर है, प्रधान जी की स्थिति किसी हद तक ‘बेचारे’ जैसी हो गई है — एक ओर सचिव की मनमानी, दूसरी ओर प्रशासनिक दबाव, और तीसरी तरफ जनता की अपेक्षाएं।
आजकल गांव में चर्चा है कि प्रधान जी सचिव साहब के आगे-पीछे घूमते नजर आते हैं। लेकिन असल तस्वीर कुछ और है। जिन फाइलों को आगे बढ़ाने, योजनाओं को क्रियान्वित करने की ताकत सचिव के हाथ में है, वहां प्रधान जी का केवल निवेदन भर रह जाता है। पहले जब प्रधान जी सशक्त थे, तब सचिवों की भूमिका सीमित थी। अब जब कुर्सी डगमगा रही है, तो सचिव ही सारे फैसलों की चाबी बन बैठे हैं। ऐसे में बेचारे प्रधान जी को चाहकर भी बहुत कुछ करने की स्वतंत्रता नहीं रही।
इस पूरे घटनाक्रम में रोजगार सेवक की भूमिका पर भी सवाल उठते हैं। गांव में जब मनरेगा योजना, श्रमिकों की मजदूरी, महिला श्रमिकों की भागीदारी और पारदर्शिता की बात आती है, तो रोजगार सेवक की जिम्मेदारी अहम हो जाती है। लेकिन वर्तमान में वे पूरी तरह सचिव के निर्देशों पर कार्य कर रहे हैं, जिससे कई योजनाएं केवल कागज़ों पर सीमित रह जाती हैं। प्रधान जी चाहकर भी इन व्यवस्थाओं में दखल नहीं दे पा रहे हैं।
गांव में विकास कार्य अब केवल सड़कों, नालियों, और इंटरलॉकिंग तक सीमित रह गए हैं। सामाजिक विकास, गरीबों के बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य सहायता, और बुजुर्गों की देखभाल जैसे मुद्दे हाशिए पर चले गए हैं। पहले त्योहारों पर पंचायत की ओर से कोई न कोई पहल होती थी — चाहे वह दीपावली की मिठाई हो या होली पर सामूहिक आयोजन। आज प्रधान जी के पास न संसाधन बचे हैं, न ही सहयोग।
जनता भी भ्रम में है — प्रधान जी को दोष दिया जाता है, लेकिन अंदरूनी तंत्र में उनके हाथ अब बंधे हुए हैं। सचिव और बाबू वर्ग की हुकूमत में एक जनप्रतिनिधि की दशा केवल ‘कृपापात्र’ जैसी रह गई है।
आज की जरूरत है कि ग्रामीण समाज इस बदलाव को समझे — प्रधान जी को सहयोग दे, और पंचायत को पुनः जनभागीदारी की ओर ले जाए। चुनाव आ रहे हैं, पर इससे पहले इस कार्यकाल की सच्चाई जानना भी जरूरी है।
खबर सहयोगी प्रिया श्रीवास्तव