नई दिल्ली। राजधानी दिल्ली पिछले कई दिनों से घने धुंध, स्मॉग और जहरीली हवा की चपेट में है। सांस लेना तक मुश्किल हो गया है। ऐसे में लोगों को राहत देने के लिए उम्मीद की एक किरण दिखी — क्लाउड सीडिंग यानी कृत्रिम बारिश की योजना।यह प्रयोग उत्तर प्रदेश सरकार और आईआईटी कानपुर के संयुक्त प्रयास के तहत किया गया। शुक्रवार को दिल्ली के आसमान में क्लाउड सीडिंग की गई थी, जिससे कुछ घंटों बाद बारिश की उम्मीद थी। लेकिन लंबे इंतजार के बावजूद आसमान से एक बूंद भी नहीं गिरी।
इसने लोगों के मन में कई सवाल खड़े कर दिए — क्या तकनीक फेल हो गई? आखिर बारिश क्यों नहीं हुई? और क्या भविष्य में यह प्रयोग सफल हो सकता है?
क्लाउड सीडिंग क्या है?
क्लाउड सीडिंग एक वैज्ञानिक तकनीक है जिसके जरिए बादलों में मौजूद नमी को रासायनिक तत्वों की मदद से सक्रिय किया जाता है ताकि बारिश हो सके।इस प्रक्रिया में आमतौर पर सिल्वर आयोडाइड (AgI) जैसे रसायन का उपयोग किया जाता है, जिसे विमान या रॉकेट के जरिए बादलों में फैलाया जाता है। इससे बादलों के भीतर जलकण आपस में मिलकर बूंदों का निर्माण करते हैं — और यदि पर्याप्त नमी हो, तो बारिश होती है।
लेकिन इस तकनीक की सफलता पूरी तरह बादलों की नमी पर निर्भर करती है।
बादलों में नमी की कमी बनी सबसे बड़ी बाधा
आईआईटी कानपुर के निदेशक प्रोफेसर मनिंद्र अग्रवाल के अनुसार, दिल्ली के आसमान में उस दिन बादल तो मौजूद थे, लेकिन उनमें नमी मात्र 15 प्रतिशत थी।जबकि बारिश कराने के लिए कम से कम 40 से 50 प्रतिशत नमी जरूरी होती है।नमी कम होने की वजह से बादल भारी बूंदें बनाने में सक्षम नहीं हो पाए और बारिश की प्रक्रिया अधूरी रह गई।
फिर भी मिली राहत — प्रदूषण में 10% की कमी
हालांकि, प्रोफेसर अग्रवाल इसे पूरी तरह असफल प्रयोग नहीं मानते।
उनके मुताबिक, यह पहली बार था जब सर्दियों के मौसम में दिल्ली जैसे प्रदूषण प्रभावित शहर में क्लाउड सीडिंग के जरिए हवा को साफ करने की कोशिश की गई।इस दौरान लगाए गए माप उपकरणों ने दिखाया कि जहां क्लाउड सीडिंग की गई, वहां PM 2.5 और PM 10 के स्तर में लगभग 10 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की गई।
यानी बारिश तो नहीं हुई, लेकिन हवा कुछ हद तक जरूर साफ हुई।
क्या सिल्वर आयोडाइड से पर्यावरण को खतरा है?
कई लोगों के मन में यह भी सवाल है कि बादलों में रसायन डालने से पर्यावरण को नुकसान तो नहीं होगा?
इस पर वैज्ञानिकों का कहना है कि सिल्वर आयोडाइड की मात्रा बहुत कम होती है — 100 वर्ग किलोमीटर में एक किलो से भी कम।इतनी नगण्य मात्रा से न तो पर्यावरण को नुकसान होता है, न ही यह मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
क्या यह मौसम से छेड़छाड़ है?
कुछ लोग क्लाउड सीडिंग को मौसम के साथ छेड़छाड़ मानते हैं।
प्रोफेसर अग्रवाल के अनुसार, यदि यह प्रक्रिया लगातार और बड़े पैमाने पर की जाए तो इसे मौसम परिवर्तन कहा जा सकता है।लेकिन दिल्ली में यह प्रयोग बहुत सीमित दायरे में और केवल प्रदूषण कम करने के उद्देश्य से किया गया था।
सीख का चरण है यह प्रयोग
विज्ञान संभावनाओं पर आधारित होता है — और क्लाउड सीडिंग भी उन्हीं में से एक है।
दिल्ली में इस बार बारिश नहीं हुई, लेकिन इस प्रयोग से जो डेटा और अनुभव मिले हैं, वे भविष्य में इस तकनीक को और बेहतर बनाएंगे।यदि अगली बार बादलों में नमी पर्याप्त होगी, तो कृत्रिम बारिश से बेहतर नतीजे मिलने की पूरी संभावना है।
असफलता नहीं, बल्कि नई शुरुआत
दिल्ली में क्लाउड सीडिंग से भले ही बारिश नहीं हुई, लेकिन यह प्रयास एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक कदम है।
यह साबित करता है कि प्रदूषण कम करने के लिए नई तकनीकें अपनाने की दिशा में भारत तेजी से आगे बढ़ रहा है।
आने वाले समय में जब मौसम अनुकूल होगा, तो यह तकनीक दिल्ली की हवा को सचमुच राहत पहुंचा सकती है।














